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हस्तक्षेप

निशान्त केतु

भारतीय संस्कृति के विद्वान एवं भाषाविद आचार्य निशान्त केतु से एक बातचीत

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: आचार्य जी !आपसे मेरा सवाल है कि आपके अनुसार संस्कृति के क्या मायने हैं? क्या संस्कृति और कल्चर एक ही है?

आचार्य निशान्त केतु: आपने एक प्रश्न में दो प्रश्न किए हैं. दोनों के उत्तर अलग-अलग होंगे. वस्तुत: संस्कृति और 'कल्चर 'दोनों एक नहीं हैं. अंग्रेज़ी का 'कल्चर 'शब्द 'कल्ट 'से बना है जो. एग्रीकल्चर में है. जो नहीं है भूमि पर, उसको उर्वरित करना, उत्पादित करना 'कल्चर 'है. कभी-कभी आपने देखा होगा रत्न-भण्डागार में जो पत्थर होते हैं, उसे तराशते हैं- नकली पत्थर को, उसे भी 'कल्चर 'कहते हैं. 'कल्चर 'एक प्रकार से नक़ल है. इसीलिए उसे एक प्रकार से कहते हैं कि ये तो 'कल्चर्ड 'मोती है. वो असली मोती नहीं है. 'कल्चर्ड 'है, बनाया हुआ है. तो उनके यहाँ जो 'कल्टीवेशन ','कल्चर ','कल्ट 'इत्यादि शब्द हैं, जिससे 'कल्चर 'शब्द बना है. वहाँ एक प्रकार से बनावटीपन है. जो सभ्यता के थोडा निकटतर है, क्योंकि सभ्यता भी तो बनावटी है. प्रकृति से भिन्न है. जब प्रकृति से भिन्नता आती है, हम उसमें अपनी तराश मिला देते हैं तो वह 'कल्चर 'बन जाता है. प्रकृति को अपने अनुकूल करने की प्रक्रिया को 'कल्चर 'कहते हैं. और हमारे यहाँ 'संस्कृति 'शब्द 'संस्कार 'से लिया गया है. जब व्यक्ति अपने को शोधित करता है, संस्कारित करता है. अर्थात, उन्नत से उन्नतर करता है, महत से महत्तर करता है, तब उससे संस्कृतिकरण, संस्कार, संस्कृति, संस्कृत शब्द इत्यादि बनते हैं. एक उल्लेखनीय बात यहाँ पर है कि संस्कृत में संस्कृति की अवधारणा तो रही है, लेकिन संस्कृति शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ. इसका प्रयोग मोरेन विलियम ने सबसे पहली बार जर्मन डिक्शनरी में किया था. 'कल्चर 'के संस्कृत शब्द में 'संस्कृति 'शब्द का प्रयोग किया था. लेकिन हमारे यहाँ 'संस्क्रिया 'शब्द है, संस्कृत, संस्कार, संस्करण शब्द हैं. ये सभी संस्कृति के निकटतम शब्द हैं. इस सम्बन्ध में एक अन्तिम बात कही जा सकती है कि जीवन की दो धारायें होती हैं. एक प्राकृतिक, एक सांस्कृतिक. जो प्रकृति ने, कुदरत ने, नेचर ने हमारे अनुकूल बनाकर किया है, उसे हम प्रकृति कहते हैं. एक जीवन धारा यह भी रही है कि हम प्रकृति की अनुकूलता में जिएँ. सूर्यास्त होता है तो सभी व्यापार कार्य समाप्त करके गृहबद्ध हो जाएँ. तो इस प्रकार के संकेत प्रकृति से मिलते हैं. जंगलों में फल या वृक्षों में फल मिलते हैं. उस फल को खाकर आप स्वस्थ रहते हैं. और आजकल जो फास्ट फूड नूडल्स हैं, बहुत सारी कृत्रिमतायें हैं, उनसे अलग रहें. यह प्राकृतिक जीवन का लक्ष्य है. एक दूसरी धारा है कि हम प्रकृति को अपने अनुकूल कर लें. जो इच्छा, अपेक्षा, आकांक्षा, जिजीविषा और आपके अनुकूल हो, उसे हम अपने अनुकूल कर लेते हैं, तो वहाँ संस्कृति (...)समानान्तर धारायें हैं.
इसमें एक विचार यह है कि प्राकृतिक धारा ज़्यादा अच्छी है. और दूसरी धारा है सांस्कृतिक धारा ज़्यादा अच्छी है. लेकिन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करके ही कहीं न कहीं जीवन सम्भव हो सकता है. उस स्थिति को हम पूरी तरह छोड भी नहीं सकते. यदि पूरी तरह उस स्थिति को हम छोड़ देंगे तो बीमार, अस्वस्थ, मरणासन्न हो जाएँगे. दोनों में यदि अधिकतर को अगर अपनाना हो तो प्रकृति को अपनाना पड़ेगा. संस्कृति को छोड़ना पड़ेगा, क्योंकि वह कहीं न कहीं कृत्रिम है, कहीं न कहीं अप्राकृतिक हैं.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: भाषा किस प्रकार उच्च संस्कृति निर्धारण में भूमिका का निर्वाह करती है?

आचार्य निशान्त केतु: देखिए !जैसा कि अनेक स्थानों पर मैंने लिखा भी है कि अगर हम परमात्मा की अवधारणा को स्वीकार करें, और नहीं तो अघोरियों की अवधारणा को स्वीकार करें तो वो मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है. देवता भी नहीं हैं, क्योंकि देवता भी कालबद्ध, परिस्थितिबद्ध होते हैं. वे स्वतन्त्र नहीं हैं. और पशु भी स्वतन्त्र नहीं हैं. पशु पाशवत हैं, इसीलिए उसे पशु कहते हैं. देवता जो है वो अपने को संस्कारित नहीं कर सकते. जो भोगने योग्य है, वही भोगते हैं. लेकिन मानव जीवन जो है, वह उत्कृष्टता की ऊँचाई पर पहुँच सकता है, वह याज्ञवल्क्य बन सकता है. महर्षि कपिल बन सकता है. शंकराचार्य बन सकता है. और फिर ओसामा बिन लादेन भी बन सकता है. तो ये सभी सम्भावनायें मनुष्य के साथ हैं. वो देवताओं के साथ नहीं हैं. पशु के साथ नहीं हैं. इसलिए मनुष्य सर्वोत्तम कृति है. और मनुष्य की सर्वोत्तम कृति क्या है? भाषा है. भाषा से बढ़कर कोई संस्कृति नहीं है. कोई सम्पदा नहीं है. कोई शक्ति नहीं है. कोई शोभा नहीं है. कोई अन्तर्दृष्टि नहीं है. इसलिए भाषा के माध्यम से हम इतिहास, भूगोल, खगोल की यात्रा करते हैं. उपग्रह से हम उनके महानतम तक पहुँचते हैं. अगर भाषा नहीं हो तो फिर मनुष्य. मनुष्य का सम्बन्ध भी नहीं है. फिर हम पशु की तरह केवल ध्वनि में जिएँगे और स्पर्श में जिएँगे. तो हमारा जीवन अन्तचित मात्रिक है. रूप, रस, गन्ध इत्यादि ये सभी भाषा के ही माध्यम से ही हैं. हम हजारों साल अतीत की यात्रा कर लेते हैं. भविष्य की यात्रा कर लेते हैं. उपग्रहों के पार चले जाते हैं. गणित के सूत्र ग्रहण करते हैं. भाषा के माध्यम से, संवेदना के माध्यम से. इसलिए संस्कृति तो एक रॉ मटेरियल है. एक स्टॉक है. एक अलंकरण, उपकरण है. उसका उपयोग भाषा के माध्यम से होता है. हम उसे कैसे परिवेशित करते हैं, परोसते हैं. हम दूसरे के समक्ष उसे कैसे उपस्थापित करते हैं? इसलिए भाषा की न केवल संस्कृति के लिए, साहित्य, गणित, आध्यात्म के लिए, समाजशास्त्र, भूगोल, इतिहास, राजनीतिशास्त्र के लिए, सर्वत्र भाषा रहीम मात्र है. चाहे वह सौन्दर्यशास्त्र होए या कार्यशास्त्र हो, चाहे व्यवहारशास्त्र हो या राजनीतिशास्त्र हो, अर्थशास्त्र हो या कोई भी शास्त्र हो, भाषा के बिना काम नहीं हो सकता. भाषा एक व्यंजना है. एक अभिव्यक्ति का शास्त्र है. और जब वह नहीं है तो फिर संस्कृति भी नि: सार है. संस्कृति का अर्थ क्या है? भाषा उसे प्रतिपादित करती है. उसे व्याख्यायित करती है. उसकी व्याख्या करती है. और एक-दूसरे के लिए अवबोध्य बनाती है. विचारणीय है कि ये कैसी है?

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: भारतीय संस्कृति का वह कौन सा पक्ष है? जो इसे अन्य संस्कृतियों से विशिष्ट बनाता है.

आचार्य निशान्त केतु: देखिए !पूरे विश्व में छ: अरब लोग हैं. और 230 देश हैं. छ: हजार एक सौ इकतालिस भाषायें हैं राष्ट्रसंघ की परिगणना के आधार पर. इसमें भारतवर्ष की विशिष्टता अन्य शेष देशों और अगर भारत के साथ है तो इसमें हम तीन बातों का उल्लेख करेंगे.
पहली बात है- आध्यात्म, भारत की देन है. संसार के शेष देशों में फ़िलॉस्फ़ी एण्ड रिलिजन वैष्णव धर्म हो सकता है. वहाँ आध्यात्म नहीं है. अध्यात्म का अर्थ है, जहाँ कोई रिलिजन नहीं है, कोई धर्म नहीं है, कोई दर्शन नहीं है. कोई सत छड जाए. और हम अपनी आत्मा को दूसरे की आत्मा के साथ जोड़कर देखते हैं, जिसके लिए कहा गया है 'ईशोपनिषद 'में यस्तुऋ सर्वाणि भूतात्रिमल्य उपस्थिति सर्वभूतेषु च आत्मान ततो मानव विलूपषति.
जो अपने को सबों में देखता है और सबों को अपने में देखता है. यह तो सर्वभूतात्मकता है. आध्यात्मिक दृष्टि है. वह भारतवर्ष की अकेली उपलब्धि है. दूसरी उपलब्धि हम कह सकते हैं. मन्त्र. पूरे विश्व की छ: हजार एक सौ इकतालिस 6141 भाषाओं में प्रार्थनाएं हैं, हिम्स हैं, जर्मन में किरिर्वल्लीट कहते हैं, वह है, लेकिन मन्त्र नहीं है. एक छोटा सा एकाक्षरी मन्त्र, हमारे यहाँ मन्त्र एकाक्षरी भी होते हैं. एक अक्षर के मन्त्र. द्विअक्षरी भी होते हैं. त्रिअक्षरी भी होता है, सताक्षरी होता है. इस मन्त्र के उदाहरण स्वरूप और मरणातत्रायति मन्त्र से एक व्यक्ति राम को मन्त्र मान लेता है. सारा जीवन राम पर अवलम्बित कर देता है. ऐसा विश्व में आपको कहीं नहीं मिलेगा. एक शब्द पर टिका हुआ 'अस्तित्व '. एक कृष्ण, एक केशव, इस प्रकार हज़ारों ऐसे मन्त्र हैं. मन्त्रों की संख्या 72 करोड़ बताई गई है. बहत्तर करोड़ मन्त्र और एक-एक मन्त्र की सार्थकता है उसमें. यह भारतवर्ष की दूसरी विशिष्ट उपलब्धि है.
तीसरी बात, जो है भारत वर्ष की विशेषता. सारे देश एक दूसरे से कटकर जाति जिसे 'रेस 'कहते हैं जाति, धर्म और दर्शन, रंग, रूप से कट-छँटकर अकेले द्वीप की तरह बन जाते हैं. भारतवर्ष की चेतना सर्वभूतेषस्य आत्मानं सभी भूतों तक जाती है. जिसके लिए कहा गया है 'अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम उदार चरितानाम तुभ्य वसुधैव कुटुम्बकम '.सारा संसार ही कुटुम्ब है, वसुधैव है. तो इस प्रकार भारतवर्ष की चेतना सदैव इसलिए आपने देखा होगा भारत एक मातृभूमि के रूप में स्वीकृत है. ये पितृभूमि कहीं नहीं रहा है. कभी नहीं रहा. अब लगभग तीस-पैंतिस देशों को मातृभूमि कहा जाने लगा है. भारतवर्ष की देखा-देखी. लेकिन माता कभी आक्रमण नहीं करती. आक्रान्त होती है. भारतवर्ष, वर्मा से लेकर अफगानिस्तान तक, कन्धार तक था. और इसके टुकडे होते गए. धीरे-धीरे इतने टुकड़े हो गए. एक सिमटकर रह गया देश. जो जम्मू द्वीप था, आर्यावर्त था, भारत खण्ड था, जिसे हम वृहत्तर भारत कहते हैं. वह वृहत्तर भारत कहते-कहते सीमित हो गया. भारतवर्ष ने कभी दूसरे पर आक्रमण नहीं किया. आक्रान्त होता रहा. कटता-छँटता रहा. लेकिन कभी भी आक्रमण नहीं किया. अंहिसा का सन्देश दिया. एकता का सन्देश दिया. ज्ञान और करुणा का सन्देश दिया. तो भारतवर्ष की ये तीन विशेषतायें मैं मानता हूँ. आध्यात्म, मन्त्र, जो आध्यात्म में ही निहित है और वैसुधैव कुटुम्बकम की भावना.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: धर्म और संस्कृति के विकास में क्या है कि संस्कृति निरन्तर विकसित होती रहती है या उसका भी सन्तृप्तीकरण होता है?

निशान्त केतु: देखिए, धर्म और संस्कृति को मैं अलग-अलग मानता हूँ. धर्म संस्कृति नहीं है. न संस्कृति धर्म है. कुछ लोगों ने जो कट्टर धर्माचार्य हैं उन्होंने संस्कृति को धर्म का अनुयायी बना दिया है. ऐसा नहीं है संस्कृति एक स्वतं: धर्मनिरपेक्ष सत्ता है. अस्तित्व है. जैसे द्रविणों की संस्कृति, आर्यों की संस्कृति, चीनी संस्कृति, प्राचीन संस्कृति, मध्यकालीन संस्कृति, हूणों की संस्कृति, आधुनिक संस्कृति, भाषिक संस्कृति, साहित्यिक संस्कृति, ज्ञानात्मक संस्कृति, आध्यात्मिक संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, पौराणिक संस्कृति, तो संस्कृति के अनेक स्परूप होते हैं. काल और स्थान के आधार पर संस्कृति का स्परूप बदलता रहता है. लेकिन संस्कृति जो बीत गई है जैसे प्राचीन संस्कृति, बौद्धिक संस्कृति वह प्राचीन होने के बावजूद आज भी अवलोकनीय, पठनीय और मध्यपूर्ण है. वो एक जिसे कहते हैं संग्रहालय में समाकर रिक्त धरोहर के रूप में सुरक्षित रखने की चीज है. और उसका हम बार-बार अवलोकन करते हैं. उससे हम प्रेरणा लेते हैं. इसलिए संस्कृति कभी मरती नहीं है. वह एक स्थान पर जाकर सध जाती है. जहाँ से जाकर हम प्रेरणा लेते हैं. प्रकाश लेते हैं. लेकिन संस्कृति की धारा बढती रहती है. निरन्तर जारी रहती है. आज जो हमारी संस्कृति है जीने की, वैदिक काल में नहीं थी. और जो वैदिक काल में थी वो आज नहीं है. या मध्यकाल में जो संस्कृति थी वो आज नहीं है. काल की दृष्टि से, देशान्तर की दृष्टि से यूरोपियन संस्कृति, अमेरिकन संस्कृति, चीनी संस्कृति, जापानी संस्कृति, अफ्रीकन संस्कृति में विभिन्नता है. इसलिए संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए. धर्म की एक अलग परम्परा है. धर्म एक नीतिशास्त्र है. उसमें धीरे-धीरे कट्टरता आती गई. पक्षनिरपेक्षता दूर होती चलती गई. साम्प्रदायिकता आती गई. और बहुत सारा विवाद हुआ. संस्कृति 'संवाद 'की संरचना है. और धर्म विवाद की चीज बनकर रह गई. 'संवाद 'और 'विवाद 'में फर्क है. 'संवाद 'सहृदयता है. 'आइडेन्टीफिकेशन 'है. प्रत्यय विज्ञान है. और 'विवाद 'शास्त्रार्थ है. एक दूसरे को नीचा दिखाने की भावना है. इसलिए संसार में अभी 300 धर्म है. और हर धर्म एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है. ये परस्पर युद्ध की स्थिति धर्म में है. संस्कृति में टकराहट नहीं होती है. संस्कृति में सहजीवन होता है. सहअस्तित्व होता है.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है कि ऋगवेद में मूर्तिपूजा या मन्दिरों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता. कालान्तर में अनुष्ठान पद्धतियों एवं देवताओं में वृद्धि हुई. आप किस सनातन संस्कृति को श्रेष्ठ मानेंगे. इस बात को ध्यान में रखते हुए कि सनातन में सांई बाबा और अन्य को देवतुल्य मानकर उपासना शुरू की गई. कौन सा पक्ष धर्म का श्रेष्ठ था?

आचार्य निशान्त केतु: देखिए !ये प्रश्न ग्रन्थि है. इसमें बहुत सारे प्रश्नों का संश्लेष कर दिया है आपने. लेकिन संक्षेप में इसका उत्तर हो सकता है. कि भारतीय संस्कृति निराकार की संस्कृति है. सत्कार की संस्कृति नहीं है. दूसरी बात कि यह अनाकांक्षा निरपेक्षता की संस्कृति है. इसे अष्टावक्र कहते हैं. अष्टावक्र जनक संवाद में इसका उल्लेख किया गया है. जिसमें जो हमारा अस्तित्व है वह आत्मिक अस्तित्व है हम आत्मा के धरातल पर जीते हैं. वहाँ आकारहीनता हैं. परमात्मा का कोई आकार नहीं हो सकता. आकार प्रकृति का होता हैं. और हम सभी प्रकृति की देन हैं. हमारे भीतर परमात्मा का अंश आत्मा के रूप में अवश्य है. लेकिन वह निरपेक्ष है, दृष्टा है, प्रेक्षक है, हस्तक्षेप नहीं करता. वो पृथ्वी को जो पंचतत्वों से बना है या पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पंचतत्व उन सभी के द्वारा संचालित हुआ शरीर है. प्रकृति की देन है. प्रकृति का रूप हो सकता है. आदमी का रूप है, लेकिन आत्मा का कोई रूप नहीं है. परमात्मा का कोई रूप नहीं हो सकता. बल्कि सनातन धर्म में जिस परमात्मा के बारे में चर्चा की गई है. वह निराकर है, निरपेक्ष है निराकोक्षी है, दृष्टा है, नि: स्संग है. अत्यन्त है, जहाँ तक मूर्ति पूजा का प्रश्न है. ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है. और इसमें बड़ी नीतियाँ है. एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को पत्र लिखा है. वर्णों में लिखता है. भाषा वर्णों में आती है. जब लिख देते हैं तब वरण हो जाता है. जब बोलते हैं तब अक्षर होता है. अक्षर कभी मिटता नहीं इसीलिए उसका नाम अक्षर है. भावोक्ति शास्त्र भी यही कहता है. वर्ण माने रंग. जब किसी स्याही से उसे लिख देते हैं पन्ने पर वह पूर्ण हो जाता है. तो एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को पत्र लिखता है. ये वर्ण क्या है? मूर्ति ही तो है. उस मूर्ति में भाव भरकर के प्रेमी भेजता है. प्रेमिका उसे पढ़ती है उच्छवसित होती है. आनन्दित होती है. प्रयुक्त होती, रोमांचित होती है. और पढ़ने के बाद उस पत्र को या तो फाड़कर फेंक देती है. या फिर बक्शे में डाल देती है. जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है. मूर्ति की इतनी ही उपयोगिता हैं परमात्मा की विराटता की हम चूँकि उपासना नहीं कर सकते. क्योंकि हम लघु हैं इसलिए परमात्मा को हम लघु बनाकर उसमें विराटता को भरते हैं. उपासना करके आदि प्रतिमा का विसर्जन कर देते हैं. उस प्रतिमा को विसर्जित कर देते हैं. इसलिए हम मूर्तिपूजन हैं कहाँ? हम तो वर्ण साधक हैं. मूर्ति को मूर्तित करते हैं और उस चिट्ठी को पढ़कर, पत्र को पढ़कर हटा देते हैं. वह हमारे लिए अप्रासंगिक हो जाता है, फालतू हो जाता है. इसलिए मूर्ति हमारे लिए सर्वरक्षणीय नहीं है. बल्कि कालिक महत्व है. सार्वकालिक महत्व नहीं है. क्षण भर हमने मूर्ति को देखा, चूँकि हम स्वयं शशरीर हैं इसलिए शशरीर की उपासना करना चाहते हैं. लेकिन उसके माध्यम से हम फिर निराकार में चले जाते हैं. इसलिए मूलत: सनातन तत्व निराकारी है और बचता नहीं है. जो नूतन और पुरातन के बीच में रोजातन होता है, वही बचता है. और सनातन है. निराकार, निराकरण, अव्यक्त, नि: स्संग, परमात्मा, महतत्व अगर परमात्मा हम नहीं भी मानें तो. जो हमारे भीतर लघु रूप में आत्मा के रूप में विराजमान है. जिसे हम घटाकाश और महाकाश कहते हैं; के भीतर हीं आकाश है. और आकाश तो महाकाश है ही. घड़ा फूट जाएगा और उसके भीतर का आकाश निराकार में मिल जाएगा. इसलिए मूर्ति के भीतर जो निराकार है. वो वास्तव में जब निराकार के साथ मिल जाता है. जब हम सुभाषित कर लेते हैं. इसलिए सनातन धर्म की श्रेष्ठता सदैव वही रहेगी.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: आप के अनुसार धर्म और राजनीति का लोप हो जाएगा.

आचार्य निशान्त केतु: धर्म और राजनीति के लोप की बात मैंने कही है. संस्कृति में स्थिति यक्रेण होगा. दशान्तरण होगा, लेकिन लोप नहीं होगा.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: दूसरे शब्दों में यही बात मार्क्स ने भी कही थी कि पूर्ण साम्यवाद आने पर राज्य, धर्म, विवाह, परिवार का लोप हो जाएगा. मार्क्स के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?

आचार्य निशान्त केतु: बिल्कुल सहमत हैं. विवाह के विषय में भी मैंने कहा है कि प्रेम और दाम्पत्य जीवित रहेगा. विवाह टूटेगा. आपने देखा होगा नाग-नागिन, दाम्पत्य जीवन बिताते हैं ‘अग्री टू टेक लाइक ईच अदर’ एक गौरेया पक्षी और मादा पक्षी दोनों सहमत होते हैं साथ रहने के लिए. ये दाम्पत्य हैं. दे आर नाट मैरिड, वे विवाह नहीं करते. एक घोड़ा-घोड़ी, बकरा-बकरी, नाग-नागिन इस प्रकार जितने जीव जन्तु हैं. सबों में एक जोड़ा होता है, जिसे दम्पत्ति कहते हैं. दम्पत्ति माने यूनियन व बी टू . दो का मिलन. आपसी सहमति से. वहाँ कोई तमाम नहीं है. जिस दिन हुआ कि नहीं साथ रहना है चले गए. उड़कर चले गए. और ऐसा एक्सपेरिमेंट नोबेल प्राइज को स्वीकार करने वाला 1952 ई. में ज्याँ पाल सार्त्र ने किया. जिसने सीमोन द बोउवा के साथ बिना विवाह के रहना शुरू कर दिया था. वही जीवित रहेगा. और उनमें प्रेम अंकुरित होना चाहिए. एक विवाह में अंगूठी, सिंदूर, कंगन के माध्यम से जो कांन्ट्रेक्ट होता है वो वरचुअल है. ये अप्राकृतिक है. जो अप्राकृतिक है, वह टूटेगा. जो प्राकृतिक है, वो सदैव रहेगा. इसलिए विवाह आप्राकृतिक है, यह टूटेगा. समय लग सकता है. राजनीति निश्चित रूप से टूटेगी क्योंकि राजनीतिक भावना के साथ कोई मनुष्य पैदा नहीं हुआ. धर्म भी टूटेगा. क्योंकि धर्म आध्यात्म नहीं है. आध्यात्म जो हमारी आत्मा के भीतर है, धर्म आत्मा के भीतर नहीं है. नमाज करना, स्वान करो, आदि-आदि ये हमारी आत्मा की आवाज नहीं है. हम इस भावना के साथ पैदा नहीं होते हैं. ये हमने बनाया है. जिसे हम कहते हैं कोड व बाई कंडक्ट व बाई दिस सोसाइटी. एक समाजशास्त्रीय या नीतिशास्त्र की रचना करते हैं. और उसे धर्म के साथ जोड़ देते हैं. वहीं से कट्टरपन और आतंकवाद पैदा होता है. वहीं से टीस और धर्म संसार से हम टकराते हैं. तो ये अनैतिक है यह मानव जाति के कल्याण के विरूद्ध है. इसलिए मैं संस्कृति के विरूद्ध नहीं हूँ.

© 2011 Nishant Ketu; Licensee Argalaa Magazine.

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