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शिखर

उदय प्रकाश

आधुनिक कथा साहित्य एवं काव्य में अपनी अलग पहचान रखने वाले कथाकार उदय प्रकाश से अनिल पु. कवीन्द्र की बातचीत

अनिल पु. कवीन्द्र: आपकी शिक्षा एक मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े विश्वविद्यालय में हुई. आप का इस पर क्या विचार है?

उदय प्रकाश: कवीन्द्र जी, सबसे पहले तो मैं एक आपत्ति लूँ, ये सही है. कि जवाहरलाल नेहरू नाम है इसका. और ये भी सही है कि इसकी पूरी स्थापना में जिन लोगों की भूमिका थी पार्थसारथी और उसमें श्रीमती इंदिरा गान्धी के साथ जुड़े काफी बौद्धिक समुदाय के लोग थे जिसमें के. एन. सिंह भी शामिल थे. ये लोग नेहरू के विचारों से प्रभावित जरूर थे लेकिन सभी स्वतन्त्र विचारों के लोग भी थे. जवाहरलाल नेहरू के नाम के आधार पर ये बिल्कुल नहीं मानना चाहिए कि इसका सचमुच जवाहरलाल नेहरू जिसको फेबियन सोसिलिज्म के नाम से जाना जाता है. उसकी ट्रेनिंग का कोई सेन्टर था ऐसा नहीं था. 'इन्टेलेक्चुअल ' ट्रेनिग का कोई सेन्टर था ऐसा नहीं था. इन विश्वविद्यालय में बहुत धारणाएं लिए लोग भी थे और आपने पाया होगा कि जो वामपन्थी विचारधारा थी- परिवर्तनशील विचारधारा की, उसकी कई धाराओं के लोग उस विश्वविद्यालय में थे. और इसका रिफ्लेक्शन छात्र समुदाय में भी कहीं न कहीं होता था.
मैं जब जे. एन. यू. आया था उसके पहले ही मैं वामपन्थी आन्दोलन से पूरी तरह से जुडा हुआ था. और कम्यूनिस्ट पार्टी का मैं सदस्य भी था. कार्ड होल्डर भी था. मध्य प्रदेश में लम्बा काम कर चुका था. हर कोई जानता है कि अत्यन्त वर्गल जो वारंट बहुत सारे एक्टिविस्ट पर लगाए गये थे, उसमें से मैं भी था. मैं तो वहाँ से भागा हुआ था. यहाँ आकर एडमीशन लिया. और मैंने प्रवेश परीक्षा में टॉप भी किया. तो ये पहला मौका था. लेकिन ये सही है कि अगर दूसरे विश्वविद्यालय से आप तुलना करें तो बहुत बड़ा अन्तर था. बहुत बड़ा अन्तर इसलिए था कि सचमुच जैसे फ्रेंकफर्ट का नाम लिया जाता है. इसमें अध्यापक बड़े विद्वान थे जो पुस्तकालय था वह बहुत विशाल था जो पढाई का तरीका था वह बिल्कुल भिन्न था. लेकिन दूसरी बात मैं यह भी कहूँगा कि इसको जो संरक्षण मिला अगर हम उसकी तुलना करें तो ये मानकर चलें कि 863 रुपये प्रति कैपिटल प्रति स्टूडेन्ट माने तो दूसरे विश्वविद्यालय में यह 163 था. जबकि जे. एन. यू. में 863 रुपये था. यानि यहाँ आते ही आप कुछ अलग तरह की सुविधा में आ जाते थे. एक बात यह कि यहाँ भले ही व्यापक समाज से जुड़ा हुआ, जन आन्दोलन से उठा हुआ वैचारिक वातावरण न रहा था, किन्तु विचारधारा ही नहीं पूरे साहित्य वाले और ज्ञान के दूसरे अनुशासनों को समझने के लिए इस विश्वविद्यालय ने एक बहुत बड़ा अवार्ड दिया. जो पुस्तकालय में पुस्तकों का चयन भी था, वह भी दूसरे विश्वविद्यालय से बिल्कुल भिन्न था. एक सेक्शन और था वहाँ पत्रिकायें आती थीं. मैंने अन्य किसी विश्वविद्यालय में इतनी अधिक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं का आना देखा नहीं. मेरा ज्यादातर वक्त बसों में, लाइब्रेरी में, और कहीं भी अध्ययन में ही गुजरता था. यह बहुत बड़ा योगदान था इस विश्वविद्यालय का. और मेरा यह मानना है कि देखिए सिर्फ समाजवाद हो या कोई एक सेमिनार. रचनात्मकता को पूरी तरह से सम्पन्न बनाने के लिए परिस्थिति कोई भी पर्याप्त नहीं होती उनके लिए मार्क्स ने खुद कहा है कि जो उत्पादन होता है. यहाँ तक कि जो पूँजीवादी उत्पादन है. वह भी सिर्फ उत्पादन की जरूरतों को ही ध्यान में नहीं रखता है बल्कि एस्थेटिक्स की जरूरतों के अनुरूप भी उत्पादन होता है. अगर आप और भी देखें तो ऐसा नहीं कि वह यूटिलिटी कैरियर है. बल्कि आप उसकी मॉडलिंग और डिजाइन में फर्क देखें तो कहीं न कहीं एस्थेटिक्स जो कैपिटलिस्ट मॉड ऑफ प्रोडक्सन है. उसमें से भी देखने को मिल जाएगा. इस तरह से आपकी विचारधारा उसकी अंतर्दृष्टि, विश्वदृष्टि जरूर देखी जा सकती है लेकिन आप यदि एस्थेटिक्स के नियमों का पालन नहीं करेंगे अगर सौंदर्य शास्त्रीय परिभाषों पर वह रचना अच्छी नहीं होगी. इसलिए एक सेन्टर और एक अच्छी रचना में अन्तर होता है. और इस चीज को आप हमेशा ध्यान में रखें. वहाँ जब इतनी पुस्तकें पढ़ने का मौका मिला बहसें हुई, बातचीत हुई. तब वहाँ दो तरह के छात्र देखें- एक तो जिन्हें हिट पॉप कहते हैं, जिन्होंने कुछ अध्ययन नहीं किया किन्तु सीधे दो प्रतिकार स्वरूप एक आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं. और उनसे बहुत बहस सम्भव नहीं थी. क्योंकि यह एक ऐसी इम्पीरिलिज्म है. जब आप अपने में लौट जाते हैं कि जब आप कहते हैं कि मैंने तो ये किया, वो किया. दूसरा - बहस के लिए जरूरी है कि दोनों तरफ एक धरातल ऐसा हो जहाँ जिस जगह पर आप खड़े हैं, वहाँ सम्यक रूप से सम्बन्ध स्थापित किया जा सके. इस रूप में मैं जे. एन. यू. में छात्र भी रहा और अध्यापक भी रहा. मेरे कई पढ़ाए हुए छात्र काफी प्रबुद्ध भी हैं और जानेमाने भी हैं. लेकिन एक चीज वहाँ मैंने जरूर देखी कि अकादेमिकता का राजनीतिकरण तेजी से वहाँ होने लगा. और एक जो अकादेमिक्स की ऑटोनॉमी थी देखिए अकादे मिक की स्वायत्ता होनी चाहिए और यदि वो पूरी तरह से राष्ट्रीय दलों के अधीन हो जाएगा तो जिसको कहते हैं -पार्टी पॉलिटिक्स. और जे. एन. यू. में इसका रिफ्लेक्शन देखने को मिलता है. इसका मुझे बेहद दु: ख है. यानि पहले जो स्टुडेन्ट विंग होता था. यहाँ तक अपनी ही पॉलिटिकल पार्टी से सवाल पूछ सकते थे. यहाँ तक कि असहमत हो सकते थे अब ऐसा नहीं रह गया है. अब काडर होने लगे कि एस. एफ. आई, ए. आई. एस. एफ, इसका काडर है. और वो पार्टी लाइन पर काम करने लगे यानि कहीं न कहीं उन्होंने अपने आप को क्लेम कर लिया तैयार करते हैं तो यह मानकर चलें कि कॉडर यूनिवर्सल से स्वायत्त है. आप उनको बनने की प्रक्रिया स्वतन्त्र नही रही हालाँकि अब मेरा बहुत जुड़ाव जे. एन. यू से नहीं रहा. हाँ ये जरूर है कि जिंदगी के अन्तिम वर्षों में मैं वहाँ एक बार जाकर रहूँ. जो आपकी नई पीढ़ी है उससे मेरा बहुत संवाद है. अन्य प्रादेशिक भाषाओं की युवा पीढ़ी और अन्तर्राष्ट्रीय युवा पीढ़ी से भी मेरा संवाद लगातार बना है. मैं बाहर भी जाता हूँ तो क्या कहें कि पाठक, अनुवादक, लेखक, आलोचक सब नई पीढ़ी के ही हैं. इनसे ताकत भी मुझे मिलती है और हमारे समय के जो मेजर कण्ट्राडक्शनस हैं इनको मैंने जिस लिहाज जिस दृष्टि से देखा वो शायद बहुत हद तक सही था. जिसको दुनिया भर में स्वीकृति मिल रही है. उसको संस्थानिक स्वीकृत भले ही न मिल रही हो, सत्ता के केन्द्रों से लेकिन जो नागारिक समाज है उन्होंने इसे स्वीकार किया है.

अनिल पु. कवीन्द्र : आप हमेशा अपनी रचनाओं को लेकर आलोचकों के बीच सवालों से घिरे रहे. इसकी क्या वजह है?

उदय प्रकाश : देखिए !मैंने एक कहानी लिखी थी जिसमें बड़ा विवाद हुआ और वो कहानी थी -‘राम सजीवन की प्रेमकथा’लोकप्रिय कहानी है. उसमें एक तरह से इसी को इन्ट्रोगेट किया गया है. कि सब लोग बहुत ईमानदार लोग थे, परिवार थे. लेकिन जब जे. एन. यू. आए तो जैसे हम किसी पैराडाइज में पहुँच गए. यहाँ एक हॉस्टल था कॉमन मेस था. और पहले अलग-अलग लड़के-लड़कियाँ न रहकर एक ही हॉस्टल के अलग अलग विंग में रहते थे. एक ही मेस में खाते थे. आप भारत को जानते है हिन्दुस्तान भी जानते हैं ये पूर्ण आधुनिक देश है. बहुत कुछ जातिवाद, साम्प्रदायिकता सबकुछ विद्यमान हैं. यहाँ पर को एडुकेशन एक बड़ी चीज हुआ करती थी. आप दिल्ली के तमाम आम जगहों पर नजर डालें तो वहाँ कन्या महाविद्यालय महिला डिग्री कॉलेज जरूर देखने को मिल जाएगे. यहाँ अचानक इन सबसे हटकर आप एक ऐसे आइसोलेटेड टावर पर पहुँच जाते हैं. दूसरी ओर जैसा कि मैने कहा जो बौद्धिक वातावरण है. पुस्तकें हैं, अकाडेमिक सपोर्ट है. यह आपकी अपनी विचारधारा को और भी पुष्ट और विभाजित करता है. आप यहाँ पर रहकर अध्ययन ले सकते हैं दर्शन आदि-आदि के बारे में गहराई से स्कूल को पढ़ते हैं, फूको को पढ़ते हैं बहुत सारी चीजों के बारे में आपकी जानकारी बढ़ती जाती है और आप एक अच्छे इन्टलेक्चुअल जो प्रबुद्ध है उसमें बदलते जाते हैं. लेकिन उसकी शर्त क्या है? आपके सम्पर्क जो समाज में हैं वो टूट जाते हैं. आप उससे डिटैच होते जाते हैं. तो मैंने उस कहानी में कोशिश की थी. वह एक प्रेम कथा है. और प्रेम कथा एक एनालॉजी थी. जैसे आप जिस यथार्थ के लिए, जिस यथार्थ को बदलने के लिए, जिस विचारधारा को अपना रहे हैं. उसी यथार्थ से आपका सम्बन्ध नही रह गया है. कोई संवाद नहीं रह गया हैं. अगर आपने गौर से देखा हो कि उस कहानी में जिस लड़की से वो लड़का प्रेम करता है. उससे उसका कोई संवाद नहीं है. इसकी वजह से ऐसी कॉमिक ट्रेजीडी एथारिटी पैदा होती है. पर वो उसके मन की एनॉलॉजी बन जाती है. लेकिन होता क्या है कि जो बने बनाए ढर्रे हैं समझने के, उनमें भी खासकर वो लोग जिन्होंने अपना मस्तिष्क कुंद कर लिया और उस कहानी पर आरोप लगा कि यहाँ फला व्यक्ति के अस्तित्व को लांछित करने के लिए लिखी गई थी किन्तु ऐसा कुछ नहीं था. तो रचनायें कई रूपों में पढ़ी जाती है. मेरी यह रचना प्रक्रिया है जितनी जटिल और कितनी चुनौतीभरी है. एक ही रचना को कई लोग कई तरह से पढ़ते हैं. रामचरित मानस का कोई एक पाठ नहीं है हजारों सैकड़ों, लाखों पाठ है उसके. और इसी तरह कोई भी रचना अलग-अलग समय में अलग अर्थ देती है. अगर मोनालिसा का चित्र किसी ऐसे व्यक्ति को आप दिखाएँगे जिसे कला का कोई अवबोध नहीं है तो कोई इस चित्र को देखकर क्या सोचेगा? कि लड़की है मुस्कुरा रही है, विदेशी है. आपका परसेपसन आपका होता है. आपकी जो कैपेबिलिटी है. परसेपसन की वो कितनी ट्रेंड हैं.

मेरा कहना यही है कि जब यथार्थ में अलगाव हो जाता है और आप सिर्फ बौद्धिक रह जाते हैं तो आप कुछ सेमिनार कुछ गोष्ठियों में जाने लगते हैं. जहाँ आपको मुगालता तो रहता है कि अभी भी समाजवादी हैं. परिवर्तनगामी हैं. ऐसे में आप न तो समाजवादी रह जाते हैं और न तो परिवर्तनवादी रह जाते हैं. आप महानगर में नौकरी खोजते हुए, कहीं अपने आप को स्थापित करने की कोशिश में होते हैं. इसके लिए एक शब्द हैं स्ट्रग्लर. अजीब शब्द है यह स्ट्रग्लर. जब कि वो स्ट्रगल का अर्थ बहुत भिन्न और बड़ा है. तो वह व्यक्ति मेट्रो स्ट्रगलर, सिटी स्ट्रगलर बन के रहता है. ऐसे अकेले में मुलाकात बेहद अच्छी भी होती है क्योंकि कई परिवर्तन काफी नजर आते हैं. लेकिन व्यापक समाज के लिए उनका क्या योगदान है? या उनकी क्या भूमिका है? ये कहना बड़ा मुश्किल है.

अनिल पु. कवीन्द्र : साहित्य के गढ़े हुए मानकों

उदय प्रकाश : देखिए इसमें दो चीजें हैं आपने टी. एस. इलिएट का प्रसिद्ध लेख देखा होगा. 'ट्रेडिशन एँड इंडिविजुअल टैलेंट 'एक व्यक्ति में पारम्परिक और वैयक्तिक प्रतिभा दोनों होती है. लेकिन वैयक्तिक प्रतिभा ऐसी न ली जाए जो बहुत अजूबा हो. अगर कहीं न कहीं उसका जो मूल्यांकन होता है वो परम्परा में ही होता है. यानि आप अपने समाज में ही अपनी कला अपने सृजन को अपनी उपस्थिति को लोकेट करते हैं. कहीं न कहीं प्लेसमेंट जो आपका होगा, जो मूल्यांकन होगा, वो उसी इतिहास, परम्परा में ही एक जगह पर होगा. इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी वाक आप कर रहे हैं तो पहली बार नहीं कर रहे हैं. आप कहानी भी लिख रहे हैं तो पहली बार नहीं लिख रहे हैं. कविता लिख रहे हैं तो पहली बार नहीं लिख रहे है. निबन्ध लिख रहे हैं तो पहली बार नहीं लिख रहे हैं. आप पेंटिंग कर रहे है. सिनेमा बना रहे हैं तो पहली बार नहीं बना रहे हैं. आपके पहले बहुत सारे लोग हुए और ये मान के चलें कि वे सभी व्यक्तिक प्रतिभायें ही थीं. जिन्होंने काम किया तो आप उस ट्रेडिशन में हैं तो आप चाहें या न चाहें आपका मूल्यांकन होगा. और आपको जज करने के लिए जो पैरामीटर्स बनेंगे, जो कसौटियाँ बनेगी वो कहीं न कहीं परम्परा से मिलती होगी.
अब इसमें दूसरा सवाल ये जरूर आता है कि हमेशा एक समय में ही ऐसा होता है कि जो फलीभूत परम्परा है, जो कि फर्टिलाइज है, जो किसी नए सृजन को बर्दाश्त नहीं करती. समय बदल गया, यथार्थ बदल गया, जीवन-शैली बदल गई, टेकनालॉजी बदली, स्तर बदल गया, पर्यावरण बदल गया, सब कुछ बदल गया, लेकिन जो परम्परा है वो इसे स्वीकार नहीं कर रही है. वो अगर अब भी किसी पुराने समय में, जिसे अतीत का प्रेत कहते हैं आप. उसमें वो रह रहा है. तो उससे हमेशा नई रचना की कुछ संभावना कुछ कमी होती है, और मुठभेड़ होती है, दूसरी ओर जो अच्छी रचना होती है वो हमेशा जीतती है.
ये माना जाता है कि आलोचना जोकि वो कहीं न कहीं फर्टिलाइज है. बने बनाए मिथों, सिद्धान्तों से नई रचना को खुलेपन को नकारती है. प्रेमचन्द्र को आचार्य शुक्ल ने नकारा, मुक्तिबोध को लम्बे समय तक नकारा गया. रेणु को तो देखा आपने कि उनका मजाक तक उठाया गया. यह सबके साथ है. ये कोई नई बात नहीं है. ये टकराहट तो होनी ही है होती ही है. लेकिन सचमुच नई रचनाशीलता, जिसमें नई प्रतिभाशीलता जिसे आप कह रहे हैं. वह भी सम्मिलित है और उसका सम्बन्ध बदले हुए समाज, यथार्थ, जनजीवन से है, नए अन्तविर्रोधों से है तो ऐसा मान लीजिए कि विजय उसी की होगी. और आलोचना हमेशा फॉलो करती है अनुसरण करती है अब जैसे संगीत में देखिए बहुत बढ़िया उदाहरण है. कि संगीत में पहले सप्तक नहीं था. ये जिनको आक्टेवस कहते हैं चार ही सुर थे. फिर उसके बाद पाँच हुए. एक नोट या एक सुर बनाने में हजार साल लग जाते हैं. अब आपके पास सप्तक है लेकिन जिसमें भी चार के अलावा एक नया सुर सितार, काव्य, का हारमोनियम पर छेडा होगा. तो उस वक्त के संगीतज्ञों ने उसे अस्वीकार किया होगा. कि नहीं, यह तो बेसुरा हो रहा है. तो हर तरह की कला के साथ यही है. आप विज्ञान में देखिए जब गैलीलियों ने कहा कि मैंने दूरबीन से देखा है, दूरबीन नई चीज थी. उसने देखा और पाया कि सेन्ट्राफिजिक है. तो अर्थ नहीं है. सच है इतने बड़े सच को कहना तो जो बनी बनाई अवधारणा थी उसको चुनौती है. लेकिन आखिरकार क्या हुआ? आज हर कोई गैलीलियों के सच को मानता है. आप आज वर्टीकन में पोप से भी पूछेंगे तो वो यही बताएगा कि यूनिवर्स का सेंटर क्या है? वह यही कहेगा कि समय. वो यह तो नहीं कहेगा कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है. ये होता है कि कुछ ऐसी चीजें हैं जो बदलती हैं. दोनों में कौन से स्थायी है और कौन से परिवर्तनशील है?
एक बात मैं बताऊँ, बोर्खेज की बात मैं बहुत मानता हूँ और उसने एक बात अदभुत कही है. कोई भी कहानी नई कहानी नहीं है. हर कहानी पहले से लिखी जा चुकी है. कही जा चुकी है. हम उसकी सिर्फ रिट्रेकिंग करते हैं. अब आप उसके वक्तव्य को चेक करिए तो आप सही पाएँगे. जैसे प्रेम कहानी है, स्त्री और पुरूष है, वो कहानी वही है. आप करते क्या हैं कि उसका फेश बदल जाता है. जैसे 2010 है तो कहानी में मोवाइल है, इन्टरनेट है, एस. एम. एस. है, कैफेटिरिया, शॉपिंग माल, मेट्रों है, ये सारी चीजें है. लेकिन अगर आप उसके मूल में देखेंगे तो जो स्त्री और पुरूष हैं - उनके दु: ख, सुख, ईष्या, विभोग लगभग वही हैं. तो कुछ चीजें कॉन्सटेंट होती हैं. इस रूप में जैसे मान लीजिए ‘सम्बन्ध’ ये समाज से सम्बन्ध आपका स्थायी है. यह सम्बन्ध ही है. मान लजिए आप किसी को पीड़ा पहुँचा रहे हैं, कष्ट पहुँचा रहे हैं, किसी का शोषण कर रहे हैं, किसी के साथ दगा कर रहे हैं. ये किसी भी युग में एक सा रहा है. आप अगर 17 वीं सदी का उपन्यास पढ़ेगे तब भी आप पाएँगे कि वही है. आज अगर आप नई कहानी लिखेंगे हो सकता है कि चीटिंग कर ले, आपके बैंक से चोरी कर ले या आपके मोबाइल से सिम निकाल कर ले जाए और आपके एकाउन्ट से सारे पैसे निकाल ले. तो जो पीड़ा आपको हो रही है, वही पीड़ा 18वीं सदी की किसी कहानी में कोई व्यक्ति सड़क किनारे बैठा कुछ बेच रहा था और उसे किसी ने ठग लिया. तो उसकी उस पीड़ा से आपकी पीड़ा भिन्न नहीं होगी. जो मूल मानवीय भावनायें हैं, जो बेसिक ह्यूमन नेचर है उसका वो नेचर बना रहता है. इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो प्रोगेसन है ये ऐसा नहीं होता है कि पहले वो पूर्व की चीजें नष्ट करे, कुछ चीजें नष्ट करें, कुछ चीजें वो तोड़ता है, उसको नए सिरे से निर्मित करता है.

अनिल पु. कवीन्द्र: रचनाकार की रचनात्मक स्वतंत्रता में अक्सर कुछ बाधाएं अवश्य होती हैं किन्तु उन्हें किस तरह से देखा जाना चाहिए ?

उदय प्रकाश: मेरा सवाल है- समाज सभ्य है, मैं मार्क्स का उदाहरण दे रहा हूँ. उसने कहा था कि जब आप प्रेस की स्वतन्त्रता को बाधित करते हैं तो आप ये न सोचें कि आप दूसरी स्वतन्त्रताओं को बाधित नहीं कर रहे हैं. सारी स्वतंत्रताएं कहीं न कहीं कोई रिलेशन में हैं. जैसे आप मान लीजिए अपने मुह में टेप लगा देते हैं. आप कहेंगे कि हमने तो सिर्फ मुंह को बंद किया है लेकिन सोचिए कि आपका खाना पीना, हँसना रोना सब बन्द हो जाएगा. और आपका पूरा शरीर सफर करेगा. आप आँखों को टेप लगा दें और कहें कि हमने तो आंखों पर प्रतिबन्ध लगाया हैं और आप देखेंगे कि आपके हाथ और पैर स्वतन्त्र रूप से काम नहीं कर पायेंगे. किसी भी स्वतन्त्रता के एक रूप का प्रतिबन्ध तमाम स्वतन्त्राताओं को प्रतिबन्धित करता है. इसलिए मैं प्रतिबन्ध के ही विरूद्ध हूँ. इसीलिए मैं आपको बताऊँ कि इंडिविजुअल को फ्रीडम रहनी चाहिए. आप खुद ही देखिए कि जब फ्रॉस में 1779 में फ्रांसीसी क्रान्ति आई थी तो उसके बेसिक स्लोगन ही थे कि आपको अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, बराबरी , समानता, इक्वलिटी , सटरनिटि, फ्रीडम, ये तीन चीजें आपको लोकतन्त्रत को देना होगा. लोकतन्त्र का मतलब ही था व्यक्ति की मुक्ति. यदि व्यक्ति मुक्त है तो समझिए परिवार स्वतन्त्र है, समाज स्वतन्त्र है, अगर आप इसे प्रतिबन्धित करेंगे तो. ..आपसे मेरा कहना है कि आपके यही एक फकीर, सूफी सन्त, गायक, कवि जो भी बोल रहा है उनको सुनिए. उनको न सुनने से, कान बंद कर लेने से आपका ही नुकसान होगा. और उन्हें सुना जाना चाहिए. होता क्या है कि जितनी निरंकुशता बढ़ती है, जितना दमन बढ़ता है, शोषण बढ़ता है, अत्याचार बढ़ता है, इन आवाजों को दबाने की कोशिश होती जाती है और इन्हें जितना ही आप दबाएंगे. उतनी ही निरंकुश व्यवस्था और समाज का आप निर्माण करेंगे.

अनिल पु. कवीन्द्र: आज साहित्य में आलोचना में कहीं न् कहीं पक्षधरता दिखायी देती है रचनाकार और आलोचना के इस संपर्क सूत्र पर प्रकाश डालें?

उदय प्रकाश : देखिए मेरा ये मानना है आलोचना एक बहुत बड़ा अनुशासन है. और आलोचक हो पाना ये बहुत मुश्किल काम है. बहुत कठिन काम है. उसके लिए जितना अध्ययन मतलब सिर्फ सिद्धान्तों का नहीं कि आपने आई. ए. रिर्चडस और राम चन्द्र शुक्ल पढ़ लिया तो आप आलोचक हो गए बल्कि अपने समय की समस्त रचनाओं और अपने समय के यथार्थ को आप पढ़े, देखे, बौद्धिक दृष्टि या सौंदर्य शास्त्रीय दृष्टि से. आलोचना एक शास्त्र है, एक सिस्टम है, और मूल्यांकन ही एक प्रणाली है. जो काम आलोचना का होता है, दायित्व है, उस के लिए पूरी तैयारी रहनी चाहिए. मेरा मानना है हिन्दी में ऐसा पूरी तरह हुआ नहीं. देखिए एक तो हिन्दी बहुत नई भाषा है. हम खड़ी बोली कहते हैं और डेढ़ सौ साल में अभी तो भाषा ही नहीं बन पाई है और मैं तो तमाम जगहों पर बोलकर आया भी हूँ कि हिन्दी का कोई फाइनल सेप नहीं है, ये अभी बनती हुई भाषा है और जो लोग बाजार-बाज़ार की ओर रूख किए हैं मैं तो कह ही रहा हूँ कि ये तो बाजार की ही भाषा है. अगर आपने रामविलास शर्मा को पढ़ा होगा. तो इन्होंने इसके जन्म को दोहराया है कि बाजारों का जो निर्माण हुआ आगरा, दिल्ली के बीच में जब अलग-अलग क्षेत्रों से व्यापारी ग्राहक आए और आपस में उनको एक सामान्य सम्पर्क भाषा की जरूरत पड़ी तो उसी प्रक्रिया में ये खड़ी बोली इवॉल्व हुई. निर्मित हुई. तो बाजार ने ही इस भाषा को बनाया है और बाजार कोई विशेष चीज नहीं है जैसा कि लोग मानकर चलते हैं. बाजार मुक्त भी करता है और बहुत तौर पर समाजिक रूप से मुक्त भी करता है. बहुत बड़ी सामाजिक शक्ति है -बाजार में. अगर आपने पढ़ा हो सन्त साहित्य. सन्त आन्दोलन पर एक किताब है उसमें आप सोचिए कि जुलाहा, मोची, नाई, दलित, दर्जी यही सब तो थे. ये कारीगर थे, हुनर जानते थे, जिन्हें हस्त-कला, दस्तकारी आती थी. बाजार न होता तो ये सामन्ती समाज में रहते हुए जीवन भर इन्हीं सवर्णों की सेवा में लगे रहते. बाजार निर्मित होना शुरू हुआ जब परिधि में, तो उस बाजार ने भी आजाद किया. और वो वहाँ से भागे, वहाँ से निकले. आप पाएँगे कि ये ज्यादातर भटकने वाले लोग थे. डोमेक्स थे. यहाँ से वहाँ अपना करघा टाँगा और चल दिए. या तो मोची वाला डब्बा उठाया और चल दिए. तो कितना बड़ा अवसर स्वतंत्रता के बतौर इस बाजार ने दिया कि सामन्ती जकड़न से दस्तकारों और निचली जातियों को, काम करने वालों को दासता से मुक्त किया. इसीलिए जो सन्त साहित्य है, वो बहुत बड़े सोसल प्रोटेस्ट का भी साहित्य है. उसने बने बनाए कर्मकाण्डों को, जो ये बनी बनाई अवधारणायें थी, जो तमाम सामाजिक असमानताएं थी. उन सबको खुल के चुनौती दी. उसने मुल्ला, पण्डित सबको ललकारा. उसने माया का मजाक उड़ाया. दौलत का मजाक उड़ाया. वो ताकत जो पैदा हुई बाजार से आई. ये मान के चलिए कि अभी भी बहुत सारे लोगों को बाज़ार मुक्त भी कर रहा है. अब मान लीजिए मेरे जैसे लोग जो कुछ भी नहीं कर रहे हैं. मुझे जुगाड़ नहीं आता है, मैं चापलूसी नहीं कर सकता, हूँ, मैं झूठ उस तरह से नहीं बोल सकता, मैं पकड़ा जाऊँगा मैं कहाँ जाऊँगा? मैं कैसे जीवित रहूँगा? मैं परिवार कैसे चलाऊँगा? तो बाजार में सिर्फ पूँजीवादी उत्पाद ही नहीं आते हैं बड़ी-बड़ी एम.एन.सी. ही नहीं आती हैं. जैसे टाटा, बिरला, अम्बानी, मोदी आए. बाजार में एक मोची भी बैठ जाता है, एक भुटटा भूनने वाला भी बैठ जाता है, एक कम्बल बुनने वाला, रूई धुनने वाला भी बैठ जाता है. सबकी रोजी-रोटी चलती है. बाजार जिन्दगी देता भी है. इस रूप में दोनों पहलू होते हैं. इसीलिए गिरीश मिश्र ने बहुत अच्छा लिखा था कि भाई बाजारवाद कैसा शब्द है ? मैं बहुत देख रहा हूँ हिन्दी में एक नया शब्द आया है बाजारवाद, और ये किसी भी भाषा में नहीं है. अंग्रेजी की किसी भी डिक्सनरी में ये शब्द नहीं है. इकनॉमिक्स में ये शब्द कहीं नहीं है. मार्केटिंग जैसा कोई शब्द नहीं होता है. लेकिन आप देखें यहाँ गढ़ लिया गया है किन लोगों ने गढ़ा है? आप अगर इसकी तहकीकात करेंगे तो पाएँगे, ये उन लोगों ने गढ़ा है जो पीजेंट क्लास के लोग हैं. पाँचवे वेतनमान के लोग हैं. जिनके निश्चित वेतनमान है. जो स्वेच्छिक अर्थव्यवस्था में रह रहे हैं. राज्य द्वारा या संस्थानों द्वारा परिपोषित हैं. और वो चाहते हैं कि उनकी तरह एक विल्कुल मिथ्या जगत में रहने वाला, खाया-पिया, अघायी विचाराधारा वाला साहित्य जगत में चलता रहे. जिसमें लेखकों की रॉयल्टी मिल रही है कि नहीं? स्वतन्त्र लेखक जिन्दा हैं कि नहीं? उनकी आर्थिक व्यवस्था है कि नहीं? वह कहीं उत्पीडित हो रहा है कि नहीं? इनकी कोई चिन्ता न हो. बल्कि बहस भी यह हो कि किस अफसर ने कौन सी आलोचना की किताब लिख दी. उसे ढूँढो. तो ये जो हुआ है कि आलोचना ने एक बहुत ही अनैतिक काम किया है. इतिहास में इसका जिक्र यदि होगा, पिछले कुछ वर्षों की आलोचना का. तो एक बहुत बुरे उदाहरण के रूप में होगा. क्योंकि ये फेल कर गया है. इसने अपनी नैतिक जिम्मेदारी से दगा किया है. इन्होंने रचनाओं का सही मूल्यांकन नहीं किया है बल्कि इन रचनाओं के साथ रचनाकारों को अपवर्जित किया है. दण्डित किया है. ये आलोचना है ही नहीं.

अनिल पु. कवीन्द्र : ऐसे तमाम रचनाकार है इन आलोचनाओं में, जो अभी कुछ वर्षों की जिनकी आप बात कर रह हैं, जिनको सिरे से खारिज किया गया. ऐसे तमाम कवि है ऐसे तमाम साहित्यकार हैं, कथाकार, उपन्यासकार है. किसलिए किया गया? शायद एक व्याख्या थी कि अगले जन्म के मानदण्ड पर खरे नहीं उतरे. ये मानदण्ड क्या थे, ये परम्परा जाने?

उदय प्रकाश : ये परम्परागत आलोचना के मानदण्ड एक इंडिविजुअल है. एक समय में ये कहा जाता था कि जनता तक साहित्य को ले जाओ. अब जैसा मेरा साहित्य जनता तक पहुँच चुका. इससे ज्यादा क्या ख्वाहिश हो कि सारी भाषा, भारत की सारी भाषायें हिन्दी समेत और विदेशों की भाषायें सभी में अनूदित होकर मेरी रचना पढ़ी गई. जनता है ये. और अब आप क्या करते हैं कि जनता जब आपके साहित्य को अपनाती है. तब आप कहते हैं कि ये तो लोकप्रियतावादी हो गया है. याने आप न तो पोपुलर होने देना चाहते हैं, न आप जनता के बीच साहित्य को जाने देना चाहते हैं. आप चाहते हैं कि वो संस्थानों की, जो एक छोटा सा ओडिएन्स है. और कुछ पोलिटिकल, लीडरस, संस्थान, एडमिनिट्रेशन की जो कोरियरशिप है उसमें कैद रहे. और यह कि आप सब एक-दूसरे के लिए लिखें. एक छोटा सा ग्रुप 20-25 लोगों का हो दूसरे को वाह-वाह और महान बनाए. और इस तरह से सारा खेल चले, देखिए कि वो चल भी रहा है. वो 20-25-50 लोगों का एक ग्रुप है, एक समूह है. आप देखिए कि वो इसे चला रहा है और इसको क्या करेंगे? आप के तो कहने का मतलब है कि एक साहित्य हमेशा से ही राज्यपोषित रहा है. और वही साहित्य है ये. दूसरा है जनजीवन से जुड़ा हुआ, समय के परिवर्तन के साथ, उसने कई कठिनाइयाँ पकड़ी है. उस रचना को भी उतनी ही चोंटे पड़ती हें. और रचनाकार को भी उतनी ही चोटें पड़ती है. दोनों भोगते हैं. लेकिन आप देखिए कि जनता क्या कम इस समय भोग रही है. मैं जहाँ का हूँ मध्य प्रदेश के, छत्तीसगढ़ के सीमान्त का. वहाँ की जनता की हालत देखिए, क्या है आज? वहाँ क्या सरकार उनको सुनने के लिए तैयार है? यहाँ देखिए आप अभी आए होंगे जिस सड़क से. मैं अभी दो महीने पहले विदेश गया. यहाँ पर एक पार्क था. जहाँ लोग सबेरे टहलने जाते थे वहाँ एक सी. एन. जी का स्टेशन बन रहा है. यहाँ चारों तरफ शापिंग माल बन रहे हैं. जब मैं आया था पाँच वर्ष पहले यहाँ तब दो शॉपिंग मॉल थे. वहाँ थाना आनन्दविहार से यहाँ तक दो-तीन किलोमीटर पर. अब उन्नीस शॉपिंग मॉल है. और दो पंचसितारा होटल है. कौन बना रहा है? आप जाकर नीचे देख लीजिए तो एक छत पर कूडे का ढेर है. दूसरी ओर कन्सट्रशन वर्कर्स हैं. कुछ नहीं है उनके पास. उनके पास कोई भी सुविधा नहीं है. आप अभी अभी दुनिया के किसी भी देश में देखिये कामगार वर्कर्स को देखिये इन पद भ्रष्ट लीडर्स ने क्या दिया ? उनके पास पानी नहीं है, दवा नहीं है, उनके पास टॉएलेट जाने की सुविधा नहीं है. और आप पाएँगे कि मैं जब सुबह 5: 30 पर उठकर घूमने जाता हूँ उनमें से बहुत सारे लोग बाहर सोते हैं इस ठण्ड में. और वही बना रहे हैं आपका शॉपिंग मॉल, वही बना रहे हैं आपकी मल्टीस्टोरी बिल्डींग्स. बताइए इस दुनिया या फिर किसी देश में काम करने वालों को इस बुरे हालत में जहाँ बिल्कुल सुअर रहते हैं. उसमें क्या इन्हें रखा जाता है? कहीं नहीं रखा जाता. और आप बात करते हैं बुद्ध की, गान्धी की, स्वराज की और न जाने किसकी. आपके चारों तरफ ये सब कुछ हो रहा है. आप फिर भी चुप हैं. मेरी कहानियाँ क्या करती है? बस यही सच तो उजागर करती है. कि वो इस सच को सामने लाती है. कि सच्चाई ये है. फैक्ट ये है. जैसा 'दिल्ली की दीवार 'वो जिस वक्त लिखी. उसी वक्त चर्चा में आ गई कि वो किसी पुलिस अधिकारी पर लिखी गई कहानी है. जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था. आज आप दिल्ली नायर में वो कहानी संकलित है ओर सबसे ज्यादा सुपरहिट कहानी है. उसका पाठ हॉलीवुड के एक ऐक्टर ने पाठ किया न्यूयार्क में. बड़ी साहसिक कहानी है. दिल्ली में ये राज है.
माना जाता है, कि हर शहर के बारे में उस शहर के लेखक कुछ न कुछ लिख रहे हैं. दिल्ली के बारे में लिखने के लिए 14 लेखक चुने गए. जिसमें मैं अकेला हूँ यह कि अंग्रेजी का नहीं हूँ. बाकी सब अंग्रेजी के हैं. तो चौदह लेखकों ने दिल्ली के बारे में लिखा. जिन लोगों ने भी लिखा उनमें से वो कहानी जिनमें तीन कहानियाँ सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रही, उनमें भी बेहद चर्चित कहानी की श्रंखला में 'दिल्ली की दीवार 'कहानी थी. ये वही कहानी है अगर आपने देखा है तो ये कहानी बिल्कुल उसके उलटा है. ये एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो साकेत नगर में झाड़ू लगाने वाला है. वो दीवार में एक जगह झाड़ू की मूठ ठोंक- ठोककर ठीक करता है तो प्लास्टर गिरता है. वहाँ एक छेद हो जाता है. वह देखता है कि उसमें नोटों की गडिडयाँ भरी हुई है. यहाँ से कहानी शुरू होती है. वो आदमी पाता है कि वो एक कैनाल है. उसमें हजार और पाँच सौ के नोट भरे हुए हैं. उसमें से जब भी उसे 50000 या जितने भी पैसे जरूरत होती निकाल लेता. और अपनी सारी इच्छायें पूरी करता है. वो एक फ्लेट खरीद लेता है, बच्चों को पब्लिक स्कूल में भर्ती कर देता है, जो एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति की आकांक्षायें हैं. कम्प्यूटर आदि सुविधायें ले आता है. सारी जिज्ञासायें शान्त करने लगता है. क्योंकि वो एक नैतिक, जिम्मेदार, ईमानदार व्यक्ति है. लेकिन होता है न, कि जब पैसा आता है तो कुछ दुर्गुण भी आ ही जाते हैं. वो पीने भी लगता है, फिर इश्क वगैरह भी.... और अन्त में पुलिस को पता चलता है.
आप देखेंगे कि उस कहानी का अन्त बहुत त्रासद है. कहानी यह अपील करती है कि हम जिस समय में रहे रहे हैं. जिसमें दिल्ली एक कैपिटल है, राजधानी है. यहाँ पर आप अगर परिश्रम के द्वारा, ईमानदारी के द्वारा जीवनयापन करना चाहें तो वह असम्भव है. यह अपील करती है कहानी कि जो भी इस कहानी को पढ़े चाहे देश के किसी भी कोने में वो रह रहा हो वो एक सब्बल और कुदाल उठाए. दिल्ली रवाना हो जाए. यहाँ की दीवारों को ठोंके. यहाँ बहुत पैसा है. मैं आजकल यही करता हूँ. मैंने आजकल काम करना बन्द कर दिया है. काला कपड़ा पहनता हूँ और सब्बल कुदाल लेकर दिल्ली की दीवारों को ठोंकता हुआ चलता हूँ. (हँसते हुए मजाक की मुद्रा में.)
ये जो एक कॉरपोरेट कैपिटल नया आया है. ये पूरी तरह से अनैतिक है, आप इसे मानकर चलें. ये अनएथिकल इमोरल है. और जब आप इकोनॉमिक्स कहते हैं तो जैसा उन्होंने कहा था हमारे अमर्त्य सेन ने. इसमें जो शब्द ‘ इक्स’ आता है उसी का परिणाम है. ऐसा कोई नैतिक अर्थ तन्त्र नहीं हो सकता जिसमें अनैतिकता न हो. लेकिन दुर्भाग्य से ये ऐसा अर्थ तन्त्र है जिसमें किसी की कोई नैतिकता नहीं है. ये कॉरपोरेट घराने जो है. यह एक तरफ नेचुरल रिसोरसेस का दोहन कर रहा है. पूरी दुनिया के एक भयानक संकट की ओर ढकेल रहा है. पर्यावरण के लिहाज से, वो मनुष्य जो रह रहे हैं इन स्थानों पर, उनका जिस बड़े पैमाने पर विस्थापित कर रहा है. उनको मारा जा रहा है. ऐसा कभी नहीं हुआ इतिहास में. पहले जो लोग कोलम्बस से सोने की खोज में आये और अमेरिकन्स के साथ जो इन्होंने . वो आज हमारे साथ हो रहा है. ऐसे समय में आप एक लेखक, कहानीकार का क्या दायित्व मानेंगे? क्या वो शहर में चलाए गए स्त्री-विमर्श में नाटकीय भूमिका निभाए ? और वो एक ऐसे डिस्कोर्स में अपने आप को डुबा , जो हो सकता है कि जिसे अरबन मिडिलक्लास राईटर्स याकि होनहार लेखक उनके बीच चर्चा का विषय बने या वो इतने बड़े संकट के सच को अपने समय की पीड़ा, जिसे भले ही कोई न सुने वो उन्हें दर्ज करें. क्योंकि लिखना मेरे लिहाज से, मेरी दृष्टि से एक ऐसा काम है जो कि इतिहास से बड़ा काम है. क्योंकि इतिहास लिखा जाता है बल्कि ये कहें कि लिखवाया जाता है. उन लोगों के द्वारा, जो कहीं न कहीं हेजोमोनी में होते हैं. प्रभुत्व में होते हैं. जिनकी प्रभुता होती हैं. लेकिन इतिहास तो सब कुछ नहीं लिखता है न? लेखन एक बहुत ही परसनल एक्ट है. ये एक बहुत नितान्त नैतिक और एकात्मिक, अकेले व्यक्ति की एक डायरी है. जिसमें कुछ कला के नियमों का भी स्वतन्त्र रूप से पालन होता है और इसीलिए ये मान के चलें कि उपन्यास यदि सचमुच उपन्यास है तो वो किसी भी रूप में पढ़ा जाएगा लेकिन गोरवाचोव का लिखा हुआ इतिहास आप नहीं पढ़ना चाहेंगे. आप मिखाइल का उपन्यास पढ़ना चाहेंगे. लेकिन स्टालिन ने जो इतिहास लिखा उसे आप नहीं पढ़ना चाहेंगे तो ये औथेन्टिक होता है प्रामाणिक होता है. विश्वनीय होता है.

अनिल पु. कवीन्द्र : और इसी को सबसे ज्यादा अविश्वासनीय अप्रमाणिक माना गया है?

उदय प्रकाश : ये एक रिवाज है. मैंने मोहनदास कहानी लिखी. ये जैसे किसी व्याख्या की फैन्टसी हो, ये कहा गया है. मैंने कहा कि आप जाकर देखिए पूरे कोलबेल्ट में . और ये कि वहाँ देखिए कि क्या हो रहा है? मेरा ये कहना है कि इस रूप में न तो कहानियाँ लिखना सम्भव है. आप किसी विचारधारा के अन्तर्गत कहानियाँ लिख रहे हैं तो आप महान हैं. न उस तरह की कविता सम्भव है कि वो इस पोलिटिकल आइडियोलोजीकल फ्रेम में फिटिंग होती है. इसलिए महान है. ऐसा नहीं हैं, आप सेक्यूलर हैं ठीक है. फासिस्ट पर आपकी क्या राय है? आप तो कह रहे हैं कि आपने गुजरात के दंगों पर बहुत अच्छी अच्छी कवितायें लिखी हैं, लेकिन पहाड़ी ब्राह्मणकाण्ड के बारे में आपके क्या विचार हैं. अब इतने तरह के माइक्रो स्ट्रक्चर है, जहाँ आपको हर जगह इम्तिहान से गुजरना होगा. आपको एक बहुत अच्छा मनुष्य होने के लिए बहुत बड़ी कसौटियों से गुजरना पड़ेगा आज.
ऐसा नहीं है कि आपने कह दिया आप बड़े सेकुलरिष्ट हैं. मैं धर्म निरपेक्ष हूँ और लोग मान लेंगे. अभी मैं पढ़ रहा हूँ वर्धा में एक दलित लडका है राहुल कामडे. आकरण ही अनशन में बैठा हुआ है. और वो टॉपर है, गोल्डमेडलिस्ट है और उसका एडमीशन इसलिए नहीं हो रहा है कि वहाँ के लोग नहीं चाहते हैं एक दलित यहाँ आए. तो जहाँ इतना गहरा जातिवाद आपकी चेतना में बैठा हुआ है. वहाँ आप आधुनिक कैसे है? मनुष्य कैसे हैं? कहानी का थींक ही यही है कि आज इतना आन इन्केंटिंग पावर है कि जो आपके सिर्फ घर, जंगल, जमीन, जल, नौकरी खेत यही सब नहीं छीन रहा है, बल्कि आपकी अस्मिता भी छीन कहा है. वो आपका नाम भी छीनकर ले जा रहा है. कल को मैं कह दूँ कि आप, आप अनिल नहीं, मैं हूँ अनिल. मेरे पास पावर है. मेरे पास पूँजी है मेरे पास सत्ता है तो मैं ये सिद्ध कर दूँगा. कि मैं ही हूँ अनिल और आप से नहीं कर पाएँगे. आप वहाँ कमजोर है तो ऐसे में, उसमें एक जगह आता है कि मुक्तबोध कहते हैं उनको मैंने जज बनाया है मुक्तिबोध कहते हैं जितने भी दर्शन है दुनिया भर में, उनकी कसौटी यही होती है-हर समय, हर युग में, कि उन्होंने सबसे कमजोर आदमी को, काम दिया. गान्धी उसे सबसे अन्तिम आदमी कहते थे. इन्होंने कहा चीजें बदल जाती हैं, सिद्धान्त खत्म हो जाते हैं, दर्शन पुराने पड़ जाते हैं, लेकिन एक आकांक्षा ऐसी है मनुष्य की, जो अमर है और वो है न्याय की आकांक्षा. ये हमेशा ही बनी रहती है मरने के अंतिम क्षण तक . न्याय कोई आइसोलेटेड चीज नहीं है. ये उम्मीद करते हैं कि वो न्याय करेगा. और वो आपके साथ डीग्रेडेबल हो चुके हैं आपका समाज हर जगह इस तरह के सिस्टम से समाज में अन्याय करता है. आप इतने अधिक मोरली जस्टिस है कि आप अपने रिश्तेदारों को विश्वविद्यालय में दाखिला दे रहे हैं. और सारे प्रतिभाशाली व्यक्तियों की प्रतिभा को मटियामेट भी कर रहे हैं. आप खुद को मार्क्सवादी भी कह रहे हैं. आप ये कह रहे हैं कि हम न्याय के पक्ष में हैं. हम पूछते हैं आप कहाँ से न्याय के पक्ष में हैं? न्याय के लिए बड़े बदलाव की जरूरत है, बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है. मुझे लगता है इसे धीरे-धीरे सब लोग समझ रहे हैं और जान रहे हैं. एक बात जो बहुत अच्छी उत्तर-आधुनिकों ने कही थी और मैं भी कहता हूँ कि हम लोग अब जिस भूमि में हैं, वहाँ अबोधताओं का समय समाप्त हो गया है. अब हममें से कोई इनोसेंट नहीं है. अब लोग प्रबुद्ध हैं. और सब जान रहे हैं. जैसे रोमानिया था जहाँ चाक्लोवास्की को कौन नहीं जानता. एक महीने पहले कहकर जाते हैं कि ये महान हैं और एक महीने बाद हम जब उनके मंदिर को देखते हैं कि उसमें तो पूरा स्वर्ण मण्डित सामग्री है. ये कौन सा समाजवाद है? ये जो सूचना क्रान्ति हुई है इसने इन्फोर्क सेसंस हर जगह पहुँचाई है. बिना इनको फाइंड आउट किए, बिना इनसे युद्धरत हुए कामयाबी नहीं हासिल हो सकती. अभी परसो ही एक पत्रकार ने मेरा साक्षात्कार हिन्दी भाषा को लेकर किया और मैंने कहा कि अभी हिन्दी को आधुनिक होने की जरूरत है. जब तक आधुनिक नहीं हाँगे, तब तक आपके अन्दर मनुष्यों को अपने से छोटा मानने की (जातियों के आधार पर)मान्यताएं गढने की प्रवृत्ति नहीं जाएगी.

मेरा मानना है कि आलोचना ने यह काम भी किया है. आप पढ़िए आलोचना, तो आप पाएँगे कि सारा जो कास्टिस्ट फ्रेमवर्क है, मौजूद है. ये आप मानकर चलें. मेरा मानना है कि राईटर का कोई रिलिजन नहीं होता है. और कोई उसकी कास्ट नहीं होती है. अगर वो सच्चा राईटर है. और इसीलिए उसे कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

अनिल पु. कवीन्द्र : हिन्दी की नई कहानी किस दिशा में बढ़ रही है?

उदय प्रकाश : देखिए !हिन्दी कहानी विभाजित हो रही है. ओर आगे आने वाला जो समय है, उसमें उसे काफी-काफी उम्मीदें हैं. खासतौर से जो नई पीढ़ी है, उससे उम्मीदें हैं. बशर्तें कि वो लोग आलोचकों के लिए न लिखें और सम्पादकों के लिए न लिखें. इस समय ये भी मैने देखा है कि ये जो आकर्षण है कि पत्रिकायें कई हैं. कोई युवा लेखन विशेषांक निकालता है, कोई युवा कला विशेषांक निकालता है, कुछ प्रकाशन है, कुछ पुरस्कारों की संख्या बहुत बढ़ गई हैं. कोई एवार्ड देकर किसी को प्रोजेक्ट करते हैं. अगर इस प्रलोभन में नहीं फसेंगे. और जैसा कि मैंने कहा, उनका पहला दायित्व है वो अपने समय को व्यक्त करने का है. क्योंकि हर कहानीकार अपने समय को व्यक्त करता है. और ये मानके चलें कि दुनिया का कोई भी साहित्य जिसे आप वर्ल्ड लिटरेचर कहते हैं. हमेशा टॉपिकल होता है. वो अपने स्थान की, अपने जगह की, अपनी स्थानिकता को, व्यक्त करता है. जैसे मॉल को मैंने कहा एक तो वो अपनी स्थानिकता दिल्ली को व्यक्त कर रहा है. ऐसा नहीं है कि आप मानकर चलें कि आप ग्लोबल लेखन कर रहे हैं. मैंने देखा कुछ कहानीकारों में यह प्रवृत्ति आ रही है कि वो लिखेंगे तो उसमें इतने सारे फिल्मकारों के नाम आ जाएँगे. उसमें गोदार का नाम आ जाएगा और तारकोवस्की का नाम आ जाएगा. बहुत ऐसे जो बड़े कवि हैं उनका भी नाम आ जाएगा. इससे भी कुछ नहीं होता है. बात है कि आपकी रचना में जो जीवन का , आपकी दुनिया का जिक्र कितना है? प्रेमचन्द के गोदान में किस महान दार्शनिक और चिंतक का नाम है. सीधी कहानी है. गोदान को आप पढ़े, चेखाव, गोर्को को पढ़िए, लू-सुन को पढ़िये. ये अभी बहुत सरल, सहज, सीधे लेकिन बहुत बड़ी बात कहने वाले लेखक थे. इतने बड़े सच को अपने समय के साथ रख रहे हैं. हमेशा एक महान रचना बेहद सरल होती है. ये आप मान के चलिए. वो कोई बौद्धिक जिमनास्ट करता नहीं है. उसमें कोई इंटेलेक्चुअल हिटलरी नहीं चलती है. उसमें अपने समय की पीड़ा, संकट और खुशियाँ होती है. और ऐसा भी नहीं है कि वो कोई मनोरंजक प्रोजेक्ट थे- बालीवुड की तरह. कोई फैशन परेड भी नहीं है वो कि वहाँ कितनी रेंज में कहानी लिखी जा रही है. पता चला कि किसी रैंप पर चल रहे हैं कहानीकार. कि मेरा ड्रेस कोड ये है, मेरा ड्रेसकोड वो है. वो सलीका भी नही है. हर अनुभव, हर सच अपने अनुरूप अपनी शैली खोजता है. उसी में वो व्यक्त होता है.

अनिल पु. कवीन्द्र : आपकी दृष्टि में साहित्यकार का चरम लक्ष्य क्या है ?

उदय प्रकाश : ये अपने आप में एक बड़ा ही कठिन सवाल है. लेकिन आप मान कर चलें कि हर रचनाकार का लक्ष्य है अपने समय को, अपने तमाम आयामों को व्यक्त करें. और उसके सार्वभूम रूप से उसे व्यक्त करें. और व्यक्त करे ऐसे नहीं कि व्यक्त कर दें. उसके लिए भी एक सौन्दर्यशास्त्री नियमों के आधार पर अपनी विधा में, जिस विधा में वो व्यक्त कर रहा है. अपनी परम्परा, इतिहास की कसौटी पर उसको व्यक्त करे. उसको दोनों तरफ की चुनौतियों के बीच से गुजरना होता है और इसलिए ये बहुत कठिन काम है. मैं नहीं कहता हूँ ये इतना कठिन है कि बहुत महान काम है. दरसल ये बात हर मामूली हुनर वाले आदमी के साथ भी लागू होती है. आज आप जो कर रहे हैं, वो आज कर रहे हैं और आज के पहले बहुत सारा काम और बहुत सारा लेखन किया जा चुका तो इस रूप में और उसका लक्ष्य यही होता है. बाकी तो देखिए जो अन्य लक्ष्य हैं. वो लक्ष्य नहीं है. ये परिणितियाँ हैं. कोई दण्ड पा रहा है, तो कोई सम्मानित हो रहा है. मैं यह मानता हूँ कि इस समय दण्डित होना एक सच्चे लेखक की पहचान है. अगर आप दण्डित हो रहे हैं, आपको सचमुच जीवन संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है. आप मानकर चलें कि आप ठीक लिख रहे हैं. और ऐसे अन्यायी समय में अगर आप मुस्कुराते हुए दिख रहे हैं, सम्मानित हुए जा रहे हैं. आप पदोन्नति पा रहे हैं तो सन्देह होना चाहिए.

अनिल पु. कवीन्द्र : आपको अपनी सबसे प्रिय कहानी कौन सी लगती है ?

उदय प्रकाश : वैसे तो सभी कहानियाँ मेरी पसन्द की है उनमें से भी डिबिया , अभिनय आदि है. बहुत ही रोचक कहानी है अभिनय. मैं आपको कुछ बातें उसके बारे में बता रहा हूँ . ये जिस वक्त लिखी गई, मुझे वो समय याद नहीं कुछ 8-9 वर्ष पहले मुझे एक पत्र मिला स्पेन से. उसका नाम था आरियाना. उसने लिखा कि मुझे ये कहानी बहुत पसन्द है और मैं स्पेन में एक चिल्ड्रेन बुक पब्लिसर्स है उनके यहाँ काम करती हूँ. मैं इसे स्पेनिश अनुवाद कर रही हूँ. मैं चाहती हूँ कि बच्चों की बुक में ये कहानी आए वो भी चित्रों के साथ. मुझे बहुत ताज्जुब हुआ कि वो तो बहुत कठिन कहानी है. उसे बच्चों की किताब में बदलना एक अलग किस्सा है. मैंने जवाब में लिखा कि ये तो बहुत कठिन कहानी है. इसे बच्चे कैसे समझेंगे? उसने कहा नहीं. हम लोग तो उन कहानियों को ही बच्चों के बीच ले जाते हैं, जो कहानियाँ उन्हें ज्यादा सेंसेताईज करती हैं, ज्यादा संवेदनशील और मानवीय बनाती है. और आप देखिए कि बीच में ऐसा हुआ उससे मेरा संपर्क 4-6 साल नहीं रहा. अभी दो महीने पहले उसका फिर एक मेल आया कि मैं अभी भी उस पर कायम हूँ. कल यह था जहाँ जिस प्रकाशक के यहाँ मैं पहले काम करती थी. वहाँ से मैंने नौकरी छोड़ दी थी. कुछ समय पहले मैंने एक प्रकाशन शुरू कर दिया है. और ये चिल्ड्रेन बुक पब्लिकेशन है. मैं आपकी किताब लेकर आ रही हूँ. और मुझे आपकी अनुमति चाहिए. मैंने जवाब में लिखा कि मैं वर्ल्ड बुक फेयर में आ रहा हूँ. मुझे वहाँ बुलाया गया है फ्रांकफर्ट . तो क्या आप आ रही है? तुरन्त उसका जवाब मिला कि हाँ मैं आ रही हूँ. आपसे मिलना चाहूँगी. हम लोग वहाँ मिले. तो आप देखिए कि एक कहानी, सिर्फ एक कहानी, कहाँ-कहाँ लोगों को खोजती है. और स्मृति में रह जाती है. मैं बताऊँ कि मैं बिल्कुल सच बोल रहा हूँ. मैं बहुत भाग्यशाली हूँ क्योंकि हो सकता है मेरी कहानियाँ दण्डित रही हों, या उन पर जैसा कि हिन्दी में देखा गया. मेरी हर कहानी पर आरोप लगाया गया, विवाद में लाया गया, जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं है. मैं जबकि सबके निर्विवादित व्यक्ति हूँ. मेरा जीवन कोई तिगडम से नहीं भरा हुआ है. अपनी मेहनत से चल रहा है. विवाद क्यों पैदा किए जाएँ? लेकिन आज जैसा कि जातिवाद का वर्चस्व है. और तमाम तरह की सत्तायें हैं. उनको लगता है कि जैसे मुझमें कुछ है, जो कम है तो उन सबसे लेकर पैदा होता है. मैं भाग्यशाली इस मायने में हूँ कि मेरी कहानियाँ पाठकों के भीतर अपने समय के लोगों की स्मृतियों में जगह बना चुकी हैं. और यह बात सच है और वो जो कहानी है 'अभिनय 'आप पढ़िए उसको. छोटी सी कहानी है. उसमें एक व्यक्ति हैं जिनका नाम मैं अभी भूल गया हूँ फकीर मोहन, मान लीजिए. फकीर मोहन सेनापति नाम के एक व्यक्ति है. जिनका भारतीय अभिनय का जो इतिहास है रंगमंच का. उनका उल्लेख बहुत अच्छे अभिनेता के रूप में होता है. यह सच नहीं है मैं कहानी बता रहा हूँ. अब उन्होंने कभी कोई बड़े पात्र की भूमिका नहीं निभाई, न कभी किंगलियर बने, न कभी हैमलेट, न कभी अर्जुन, न भीष्म पितामह बने हैं. बहुत बड़े पात्र का अभिनय उन्होंने कभी नहीं किया. उनको क्या है कि मंच में जब नाटक चल रहा होता है तो मंच के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, दूसरे सिरे से एक सिरे तक दो-तीन बार चलना होता है. बस यही भूमिका उन्होंने निभाई है. लेकिन ये माना जाता है कि वो बहुत बड़े अभिनेता थे. और उतने से ही दर्शक पागल हो जाया करते थे. तालियाँ, आवाजें और बहुत से लोग सिर्फ उन्हीं का अभिनय देखने आते थे. जब ये फोकस हो जाया करती थी कि इसमें फकीर मोहन सेनापति हैं. तो वो चलेंगे सिर्फ. और उन्हें देखने के लिए भीड़ उमड़ जाती थी मंच पर. उसका कारण क्या था? तो उनका यह था कि बचपन में उनके माता-पिता मर गए थे और बहुत ही अनन्य किस्म का जीवन वो जी रहे थे उनके पैर में नीचे तलवों में एक घाव हो गया था. घाव जो था वो बहुत इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो रहा था. समस्या ये थी कि अगर लोगों को पता चला जाए कि गाँठ है जिसकी वजह से वो चल नहीं पाते हैं. और पैर जैसे ही जमीन पर रखते हैं तो हजारों लाखों बिच्छुओं ने जैसे काट लिया हो. इतना दर्द होता था. लोगों को ये बात पता लग जाए, तब उन्हें काम नहीं मिलेगा. दूसरे न जान पायें इसलिए वो इस दर्द को छिपाते थे. उनको बहुत मेहनत करनी पड़ी अभ्यास करना पड़ा कि जब वो पैर रखें जब बहुत पीड़ा हो, तब भी वो मुस्कुराएँ और सामान्य बने रहें. इसमें उन्होंने दक्षता हासिल कर ली. तो उन्हें काम मिल गया रंगमंच में अभिनेता का. अभिनेता का जब काम मिला तब उतनी देर के लिए वो इस वेदना को भूल जाते थे. वो क्या करते थे कि अपने चेहरे पर काली सफेद लकीरें खींच लेते थे. और काला लबादा ओंढ़ लेते थे. जब मंच पर पहला कदम रखते थे तब वो जो पहले का कुछ और दर्द था, उसको व्यक्त करते थे. चलते हुए उनके चेहरे की जो नसें थी, झुर्रियाँ थी वो दर्द के मारे काँपती थीं. जो चेहरे पर उस वक्त काली सफेद लकीरें थीं, वो नृत्य करने लगती. जैसे आप टेलिस्कोप में तरह-तरह की संरचनायें देखते हैं. वो सारी रेखायें नाचने लगती थीं. उनका शरीर उस पीड़ा में कई- कई तरह से सिकुड़ता और लचकता था. लोगों को इतने बड़े हास्य अभिनय को देखकर हंसी और तालियाँ ही बजती थी. बच्चे घर आकर के उनके तरह की लकीरें चेहरे पर बनाकर उनके तरह का अभिनय करते थे. देखिए कहानी वो ही है और अन्त में आता है कि इतिहास में लिख गया है. जब वो अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में पहुँचे, तब उनका अभिनय और शिखर तक जा चुका था. इसका मतलब कि उनकी नसों का दर्द और बढ़ चुका था. इस रूप में वो कहानी लिखी गई. इस कहानी को बच्चों की चिल्ड्रेन बुक में ले जाना स्पेनिश भाषा में बड़ी बात थी. हिन्दी में अगर आप इस कहानी का नाम भी पूछेंगे कोई शायद नाम भी नहीं जानता होगा कि अभिनय नाम की कोई कहानी भी है. तो मेरा मानना है, कि जो कहानियाँ हैं उनके अलग-अलग पाठक वर्ग हैं, अलग-अलग समूह होते हैं, समुदाय होते हैं, जहाँ वो कहानियों पहुँचती हैं. जैसे मोहनदास. मोहनदास को लेकर बहुत आरोप लगे. लेकिन आप देखिए कि आप किसी दलित आदिवासी समुदाय में जायें तो पाएँगे कि लोककथा के रूप में वो चरित्र प्रसिद्ध हो गया. आप पता करेंगे तो आज भी कई जगहों पर वो नाटक के रूप में खेला जाता है. फीचर फिल्म बन गयी थी उस पर. इस से यह हो जाता है कि देखिए, अब तो काफी उम्र हो गई है मेरी. मैंने इतना तो जान लिया है कि मैं कुछ लोगों के द्वारा स्वीकृत नहीं हो सकता. और उनके द्वारा तो कोई भी स्वीकृत नहीं हो सकता. वहीं स्वीकृत होंगे और एक-दूसरे को स्वीकार करेंगे. पहले भी मैं उनके बारे में मैं नहीं सोचता था. मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ कि कभी नहीं सोचा. मैं इनके लिए लिख रहा हूँ. और मैं किसके लिए लिख रहा हूँ इस पर भी मैंने कभी नहीं सोचा. मुझे लगा कि ये जरूरी है और मुझे इस पर लिखना चाहिए. बल्कि मैं अभी जयपुर में था तो मुझसे यही प्रश्न किया गया कि किन पाठकों के लिए आप लिखते हैं? मैंने कहा कि मैंने किन्हीं पाठकों के लिए नहीं लिखता हूँ. वहाँ मैंने बोर्खेज को भी कोट किया. बेर्खेज कहता है कि जब मैं लिखता हूँ तो मैं नहीं जानता कि मेरा पाठक कौन होगा? कहता है कि हो सकता वो एक कोई पाठक हो. और वो यहाँ न हो, पृथ्वी के किसी दूसरे कोने पर हो. इसी प्लेनेट के किसी दूसरे कोने में. और हो सकता है अभी न हो, वो कभी भविष्य में हो. तो रचना अपने आप में, लिखना अपने आप में एक ऐसा ऐक्ट है, जहाँ आप बिल्कुल अकेले हैं. वहाँ उस समय, उस मौके पर उस क्षण कोई पाठक भी नहीं है. मान लीजिए कि आप निकलते हैं कहीं और आप जानते हैं कि आपके साथ अन्याय हुआ है. और आप अपने समय को भी जानते हैं कि मैं कहूँगा भी तो कोई नहीं सुनेगा. आप पढ़िए कहानी. एक पिता है उसकी बेटी की मौत हुई है वो बताना चाहता है मगर कोई नहीं सुनना चाहता. किसी के पास समय नहीं है. तो घोड़े के पास जाके कहता है वो. तांगेवाला है वो. ऐसे ही हम किसी को नहीं कहते हैं. अथवा हमारे साथ हुआ है तो हम किसको कहेंगे? किसी के पास फुर्सत नहीं है. हम रचना कागज में तब कहते हैं. और उसको मिलते हैं लोग. क्योंकि ये मान के चलें कि जिस समय में हम रह रहे हैं, बहुतों के साथ अन्याय हो रहा है. उन लोगों को लगता है कि हाँ इसने हमारी बात कही है. इस तरह से लेखक अकेला होते हुए भी बहुतों का हो जाता है. उसकी जो वयैक्तिक पीड़ा है. उसके वयैक्तिक अनुभव हैं, वह भी सामूहिक हो जाते हैं. और अपने समय और अनुभव की पीड़ा बन जाते हैं. मेरे ख्याल से ईमानदारी यहीं है कि उस अपने अनुभव के प्रति आप ईमानदारी रहें. उसकी परिणतियों के बारे में आप न सोचें. जहाँ आप सोचेंगे थोड़ा भी, वहाँ आप कैल्कुलेटिव हो जाएँगे. फिर आप हिसाब-किताब रखेंगे कि कहाँ जाएँगे? और क्या होगा?

अनिल पु. कवीन्द्र : आलोचना में किसी कृति का एक पाठ निर्धारित कर देना कितना न्यायोचित है ? आलोचना और भाषा का सम्बन्ध क्या है?

उदय प्रकाश : इसमें एक चीज हैं. मैं आपको बताऊँ ये आलोचना पर फिर से जाती हैं बात. और आलोचना ही नहीं, बल्कि आप इसे मानकर चलें जो बहुत सारे भाषिक पाठ हैं विचारधारा में, वो आज के समय में, यहाँ पर देखें कि भाषा यानि वाक. ये सबके बड़ा इनपुट है टेक्नोलॉजी का. आपकी सारी सूचना एवं मनोरंजन सारे वक्तव्य सब कुछ प्रिन्ट से लेकर नेट तक इतना बड़ा प्रोडक्शन भाषा का कभी नहीं हुआ. यह अकल्पनीय है और यह माना जा सकता हूँ कि टनों में है. इसको हजारों-करोड़ों मीटर, टनों में नापा जा सकता है. इस भाषा के उत्पादन पुनरूत्पादन किया गया है. तो हुआ क्या है? इसके बारे में रोलाबार्थ का कहना है. मैं भी सहमत हूँ कि भाषा एक ऐसी अर्नगलता में बदल चुकी है. अब आप देखिए कि जो बड़े शब्द थे महान, अभूतपूर्व आपकी समझ में इस तरह के शब्द हो सकता है कि वो एक फैशन डिजाइन के लिए था, एक क्रिकेट प्लेयर के लिए इस्तेमाल हो रहे हों, और खूब हो रहे हो. तो इसको चैटर कहते हैं. आलोचना दुर्भाग्य से चैट में बदल गई है. आप प्रभाष जोशी की भाषा पढ़िए, वो अब नहीं है, पूरे सम्मान के साथ. अभी भाषा में तत्व कितना था. और चैटरिंग कितनी थी. या आप एन्कर, कमेन्टेटर जो आते हैं टेलीविजन में. आप उनकी भाषा सुनिए. उसमें चैटरिंग हैं उसमें और कुछ भी नहीं है. तो होता क्या है कि इतना बड़ा इनपुट जिसमें सबसे ज्यादा भाषा खपाई जा रही है किसके लिए? स्पोर्ट्स के लिए, एडवरटाइजिंग के लिए, पॉलिटिक्स के लिए, यहाँ सबसे ज्यादा भाषा का दुरूपयोग हो रहा है. एक बहुत अच्छी कविता है मेरे बेहद प्रिय कवि की. पौलिस है, बहुत महान कवि हैं. अभी जिन्दा हैं. उनकी 2007 में एक विकल्प आई है. न्यू परीट्स पर एक कविता है वर्डस. उसकी शुरूआत ही यूँ होती है कि बेशक उन्हें गुब्बारों की तरह फुलाया गया. खूब सूरत होठों द्वारा उन्हें दाँत की सफाई ओर मुँह की सफाई याने कुल्ला के लिए उन्हें इस्तेमाल किया गया और वो अखवारों में पड़े हुए सड़ रहे हैं. चारों ओर दुर्गन्ध फैलाते हुए. लेकिन /मेरे बचपन में /चन्द जख्मों में मरहम लगाने के काम आते थे. और हम दे सकते थे उसे जिसे हम प्यार करते थे.
तो ये जो अन्तर है, अच्छी आलोचना दुर्भाग्य से क्या हो गयी है. पहले भी जैसा कहा गया ये पॉवर रोल है. जो भी सत्ता में है ये उसका औजार है. अगर सी.पी.एम. की सत्ता है. या डिग्री की सत्ता है तो ये उसके आलोचक है. आप पाएँगे उधर बैठा हुआ जो इंसान है. और वहाँ से वो आपको जज कर रहा है. मेरा कहना है कि जब आप किसी शहर का टाउन प्लानिंग करते हैं. तो आपको लगता है कि ये आबादी यहाँ नहीं रहनी चाहिए. इसके यहाँ पर रहने से मान लीजिए कि हमारा शॉपिंग कॉम्पलेक्स नहीं बनेगा. इसको हटाना जरूरी है. तो गुण्डे भेज देते है, पुलिस भेजते है. वो जो जीवन है वहाँ मनुष्यों का, उनमें वो दखल करते है. उन्हें वहाँ से बेदखल कर रहे है. आलोचना इसी तरह से उन रचनाकारों की रचनाओं के भीतर दखल करती है और उन्हें बेदखल करती है. जो काम आप एक दूसरे स्तर पर दूसरे शहर की सत्तायें हैं उनको उस नागरिक जीवन के साथ करते हुए देखते हैं.
दूसरी बात आलोचना बहुत अच्छी चीज नहीं है. सुजान सेन्टेक की किताब का नाम ही है अगेन नोट इंटर पेटेशन . आप क्यूँ व्याख्या कर रहे हैं? मैंने लिखी है. मान लीजिए मोहनदास को ही लें. मैंने पाल गोगरा, वारेन हेस्टिम्स पीली छतरी वाली लड़की लिखी जिसे आप व्याख्यायित कर रहे हैं. जब आपके अन्दर इतनी नैतिकता नहीं है. तो जिन तक वो पहुँच रही है. उनको अपनी तरह से इन्टरप्रेट करने दीजिए. आप इसमें क्यों हस्तक्षेप कर रहे हैं. बदकिस्मती से यही हो गया है. कि ये जो स्वयम्भू जिन्हें आप कह रहे हैं. ये एक ऐसी डेमोलोजी के, एक ऐसे वाग्जाल के, एक ऐसे डेस्क के ये चैटर्स हैं. जैसा कमेन्टेटर्स, जो मैदान के एक छोर पर बैठे हैं दूसरे छोर पर खेल तो रहे हैं खिलाड़ी. जो भी फैसला हो रहा है वो आपस की दो टीमों के बीच हो रहा है. वहाँ वो श्रम से, लगन से अभ्यास से खेल रहे हैं. मान लीजिए विराट कोहली. और यहाँ से ये बैठे हैं, पैसे कमा रहे हैं. और थोड़ी सी भी चूक हो जाए, तो ये बड़े से बड़े दिग्गज खिलाड़ी को भी बाहर कर दिया जाए. ये फतवा जारी करने में देर नहीं लगाते. काम है अपना धन्धा चलाना. और माफ कीजिए, आलोचना एक बहुत बुरे धन्धे में बदल चुकी है. इसका काम रह गया है लोगों को प्राजेक्ट करना. अवार्डस दिलाना. और जिनसे ये सहमत हैं ये जो उनसे अनुकूलित नहीं हो रहे हैं. उनको बर्खास्त करना, निरस्त करना, इन पर लाँछन लगाना? ये बहुत हो रहा है.

© 2011 Uday Prakash; Licensee Argalaa Magazine.

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