इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
प्रिय पाठकों एवं साथियों,
यह अंक प्रकाशित करने में जो भी विलम्ब हुआ उसके लिए हम आप सभी से क्षमा चाहते हैं. जिंदगी में कभी- कभी आम-आदमी तमाम ऐसे हालातों से घिरा होता है जब वो चाहकर भी अपनी योजनाओं में कुछ समय के लिए सक्रिय भूमिका नहीं निभा पाता है. मगर इसका यह कतई मतलब नहीं कि वो कभी भी योजना को फलीभूत नहीं करना चाहता. ऐसे ही तमाम हालातों से गुजर कर हम अपने इस कार्य को आपके सामने रख रहे हैं. आपकी प्रतिक्रिया का इन्तजार हमेशा ही रहा है और हमेशा ही आप लोगों ने इस कार्य में मेरा सहयोग दिया है. उम्मीद है इस बार भी आप निष्पक्ष होकर अपनी राय हमें अवश्य देंगे.
यह अंक उन सभी शीर्षस्थ रचनाकारों को समर्पित है जिन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है. निरंतर दुनिया की तमाम भाषाओं के साहित्य के समक्ष हिन्दी साहित्य को अपने नए-नए विचारों, दर्शन, सिद्धांतों, सर्जनाओं से सींचते आये हैं. नामवर सिंह हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक ऐसा ही महत्वपूर्ण नाम है जिन्होंने अपनी मार्क्सवादी-आलोचना के जरिये हिन्दी साहित्य को नए आयाम दिए हैं. रचनाओं को उर्वरक जमीन दी है. उनके मार्क्सवादी चिंतन-शैली, आलोचनात्मक-सौन्दर्यशास्त्री दृष्टीकोण से हम सभी बखूबी परिचित हैं. यदि ऐसे में नयी कविता की बात करें तो उनहोंने प्राच्य-पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के साथ आधुनिक भारतीय मूल्यों, परंपरा में काव्य-सर्जना को व्यावहारिक धरातल से जोडकर तमाम तत्कालीन सन्दर्भों में सहज ही नवीन अर्थ दिए हैं. इस प्रक्रिया में पारंपरिक जटिलताओं से मुक्त होकर उन्होंने मुक्तावस्था अर्थात सहजानुभूति को कविता का प्राण कहकर उसे मानवीय संवेदना, चिंतन का विषय भी बना दिया. यह अनुभूति कविता में जहां एक ओर यथार्थवादी संरचना, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन से ताल्लुक रखती थी. वहीं दूसरी ओर मानवीय कुंठाओं का विरेचन भी कर रही थी. स्वतंत्रता-आंदोलन के सफल प्रयास के बाद हिन्दुस्तान ने नयी और खुशहाल दुनिया में जीने का स्वप्न संजोया था. यही जनमानष का आग्रह भी था. किन्तु थोड़े ही समय के बाद इस सुनहरे भविष्य को खंडित-स्वप्न की शक्ल में ढलते देख सभी को गहरी चिंता में धकेल दिया. रचनाकारों ने अपने दायित्व का निर्वाह ऐसे गंभीर समय में पूरे तौर पर तल्ख़ स्वरों में तमाम रचनाओं के माध्यम से किया. इसी समय में एक आलोचक की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है और नामवर जी ने अपने वामपंथी-व्यक्तित्व को इन हालातों में रचना-कर्म के साथ ज़हनी तौर पर जोड़कर देखा. साथ ही तमाम कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए द्रवित ह्रदय, विवशताओं में जीते हुए संघर्षरत आवाम और रचनाकार को कठिन दौर की पीड़ा समेटे रचना के महत्त्व को उजागर करते देखा. इस क्रम में उनहोंने नयी-नयी संभावनाओं की तलाश में नए- नए रचनाकारों और उनकी कृतियों की तत्कालीन सन्दर्भों में आलोचनात्मक व्याख्या की. जिसमें उनके भीतर का ‘व्यक्ति’ जो एक सामाजिक इकाई है और ‘आत्म’ (जो दो दुनियाओं के बीच का सेतु) का संघर्ष था लगातार नए-नए निष्कर्षों, कृतियों में निहित आत्मानुभूति को तमाम ऊंचाइयों तक ले गया. अब तक जो कुछ भी घटित हुआ और विश्व-मानव की सभ्यता, संस्कृति से जुडा हुआ था. उस पर आलोचनात्मक-लेखन के द्वारा नामवर जी साहित्य की भाषा, परिवेश, शैली, शिल्प, संवेदना को लेकर आलोचना में कुछ मान्यताएं लेकर आये. आधुनिकता तथा पुरातनता के बीच तनाव पर सहमति-असहमति के बीच नयी बहस शुरू की. नए-नए नतीजों तक आलोचना के रचना-कर्म को लेकर गए. उनके इन्ही तमाम अनुभवों को आधार बनाकर योजनाबद्ध तरीके से साहित्य के व्यवहारिक और वैचारिक धरातल पर केंद्रित यह साक्षात्कार केंद्रित है. जिसमें कृतियों के पूर्व-मूल्यांकन के पश्चात पुनर्मूल्यांकन को लेकर आलोचक द्वारा एक सार्थक प्रयास की ओर संकेत किया गया है. और साहित्य के जरिये भविष्य-नियोजित दुनिया को बनाए रखने की गुंजाइश पर बातचीत की गयी है.
जिस तरह रूस अपनी विचारधारा, ऐतिहासिकता, दर्शन, साहित्यक- सांस्कृतिक पूंजी और राजनैतिक फैसलों के कारण दुनिया के तमाम देशों से अलग अपनी पहचान बनाए हुए है. रूस के इन्हीं अनुभवों से हिन्दुस्तान ने दृष्टि लेकर अपने विद्रोहियों, तानाशाहों, सरकारों के खिलाफ तमाम आन्दोलनों में अपने स्वर की गूंज को मद्धम नहीं पडने दिया. रूसी क्रांतिकारियों, आन्दोलनकारियों, रचनाकारों के महान विचारों के जरिये हिन्दुस्तान अपने सांस्कृतिक उत्थान के लिए लगातार संघर्षशील जमीन तैयार करता रहा है. नए-नए क्रांतिकारी, रचनाकार और राजनीतिक समझदारी से भरे हुए प्रतिनिधि पैदा करता रहा है. पहले मुगल साम्राज्य, उसकी तमाम सल्तनतों की कब्जे की नीयत से जंग का मैदान बन चुकी हिन्दुतान की जमीन को बचाया. अपनी सांस्कृतिक धरोहर, परंपरा, वैदिक-वांगमय को संरक्षित करने के लिए सदियों तक हिंदुस्तानियों ने लहू का कतरा-कतरा बहा दिया. सामने खडी अनगिनत चुनौतियों से मुकाबला किया. उसके बाद ब्रितानिया हुकूमत के चंगुल से हिन्दुस्तान को आजाद कराने का दायित्व सामने था. अपने प्राणों का मोह छोडकर आजाद हिन्दुस्तान का सुनहरा स्वप्न साकार किया. इस स्वप्न को अंजाम तक पहुंचाने में अगर किसी देश के साहित्य ने नए-नए विचारों से, अनुभवों से, हिन्दुस्तान की असंख्य जनता और मानवीय चिंतन धारा को प्रभावित किया व युद्ध की नीतियों को सही रूप से उजागर किया तो उसमें रूसी साहित्य की भूमिका अविस्मरणीय है. रूस में हुए आन्दोलनों, अनुभवों, राजनैतिक फैसले, ऐतिहासिकता को बनाए रखने की कोशिशों ने हिन्दुस्तान को नयी ऊर्जा के भिन्न-भिन्न स्रोत भी उपलब्ध कराये. जिस तरह से रूसी साहित्य अपनी जीवन-शैली, सांस्कृतिक-परिवेश, परंपरा के बदलावों, राजनैतिक-समीकरणों को अपनी महानतम कृतियों में समेटे हुए है. हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में ऎसी कृतियों का मूल भाषा रूसी में अध्ययन करने वाले अनुवादक और कवि वरयाम सिंह ने साहित्य की साझा-संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. उनहोंने रूसी साहित्य की क्रांतिकारी पहल, सामाजिक बदलाओं को हिन्दुस्तानी सभ्यता, सस्कृति के साथ जोडकर सहज संपर्क बनाए रखने वाली दृष्टि से देखा. उनके अनुवादों का केन्द्रीय-तत्व यही है कि किस तरह से दुनिया की तमाम संस्कृतियाँ एक-दूसरे की सांस्कृतिक विरासत से अभिन्न रूप से सम्बन्ध बनाए रख सकती है. यह अनुवाद की नैसर्गिकता, परिपक्व-परंपरा में ही संभव है. उनका यह विशवास कि मानव-मन और मानवीय प्रवृत्तियां दुनिया भर के लोगों में बिलकुल एक जैसी हैं. भले ही उनकी जुबान अलग-अलग ही क्यूँ न हो. इन्हीं प्रवृत्तियों को केन्द्र में रखकर कोई भी देश वैश्विक स्तर पर प्रगतिशील और विकसित हो सकता है. यह विश्व-सभ्यता के विकास का साझा-सम्बन्ध है. इस साक्षात्कार में उन्होंने विश्व-संस्कृति के एकीकरण और स्वायत्त-सत्ता को लेकर राष्ट्रीय सीमाओं और आम-आदमी को आपसी मतभेदों से परे रखकर दुनिया के अनुसर्जनात्मक रूप से हमें परिचित कराया.
रचनात्मक-लेखन के शुरुआती दौर से ही आलोचकों के बीच विवादों में घिरे कथाकार उदय प्रकाश अपने तीखे तेवरों और साहित्य में विशिष्ट दृष्टि , विचारधारा के लिए जाने जाते हैं. साहित्य की अमूल्य-पूंजी के रूप में प्रतिष्ठित कृतियों, रचनाकारों को श्रेष्ठ सम्मान साहित्य अकादमी पुरस्कार देने वाली संस्था ने हाल ही में उदय जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया है. उनकी कहानियों में मानवीय पीड़ा और सुखद अनुभूतियाँ दोनों ही एक ही सिरहाने याकि एक छोर पर फैली होती हैं. यही वजह है कि यह कहानियां नाट्य-मंचन के लिहाज से पाठक और श्रोता के अधिक नज़दीक से होकर गुजरती है और अपना असर देर तक के लिए ह्रदय में छोड़ जाती है. कुछ कहानियाँ ऎसी हैं कि जिस क्षण कहानी का पात्र अपने संवादों में डूबा अभिनेता की भूमिका में अपनी वास्तविक स्थिति और पीड़ा की गहन अनुभूतियों में जी रहा होता है. दर्शक अभिनय के उस क्षण में अभिनेता की शारीरिक क्रियाओं से आनंदित हो रहे होते हैं. यहाँ संवाद का आवरण अर्थात अभिनय दर्शक महसूस करता है और शब्दों में छिपी पीड़ा और गहन अर्थ का बयान करते हुए अभिनेता उसे जी रहा होता है. एक ही शब्द के भीतर छिपी कौमुदी और त्रासदी एक साथ दिखायी पडती है. यह कला का वह क्षण है जब अभिनेता के द्वारा अभिनीत संवादों और क्रियाओं में एक द्वंद्वात्मकता दिखाई पडती है. एक सहज और संवेदनशील कहानी यहाँ पर अपने असली मकसद को लेकर चल पड़ती है. पाठक और दर्शक को यह अहसास जब तक हो कि असल में माजरा क्या था? कहानी अपने अंतिम सोपान तक पहुँच चुकी होती है. यह तो हुई एक बात, अब दूसरी बात जो उदय जी के बारे में कि वो आम आदमी के श्रम के एवज में उसके सही दाम अर्थात पूंजी के हक की खातिर आदिवासी इलाकों में छोटे-छोटे आन्दोलनों के जरिये उसका साथ देते रहे है. उदय जी से मुलाक़ात के दौरान सबसे मजेदार बात यह रही कि उनहोंने बड़ी संजीदगी से आलोचना और रचनाकार के जरिये उसके अपने मतभेदों, और उससे जुडी समस्याओं पर अपने स्पष्ट विचार दिए, साथ ही यह भी कह दिया कि एक रचनाकार की दिहाडी है उसकी लेखनी. यहाँ दो बातें स्पष्ट हैं कि वे रचनाकार को एक मेहनतकश मजदूर के बतौर देखते हैं और दूसरी बात वो समाज में रचनाकार की वास्तविक स्थिति का बयान भी कर देते हैं. अर्थात जितना बड़ा दायित्व एक रचनाकार का समाज में है वही दायित्व एक मजदूर का भी है. एक रचनाकार का यह कहना इस ओर संकेत है कि लेखक और मजदूर को यदि उसके श्रम की सही कीमत यदि समाज से नहीं मिलती है तो जीवन में अस्तित्त्व का संकट हमेशा बना रहेगा. ऐसे ही तमाम सवालों पर उदय जी ने एक ओर गंभीर चर्चा की. दूसरी ओर व्यंग्य भरे अंदाज में कटु अनुभवों का साझा भी किया है.
साहित्य की परवरिश जहां एक ओर परंपरा में रहकर होती है वहीं दूसरी ओर साहित्य नित नए प्रतीकों को लेकर परंपरा से परस्पर सकारात्मक विरोध भी दर्ज करता है. ऐसे में समकालीन और आर्वाचीन् के बीच जहाँ गहरे मतभेद पैदा होते हैं वहीं नए विचारों का आगमन सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यताओं को नए सिरे से देखने की दृष्टी भी देता है. पौराणिकता से लेकर आधुनिकता तक आते-आते साहित्य के प्रतिमान, हमेशा ही बदलते रहे है. इन्हीं बदलावों और बने बनाए मानदंडों पर गंगा प्रसाद विमल जी ने अपने विचार साक्षात्कार के जरिये हमारे सामने रखे हैं. साहित्य में युवा रचनाकार को रचनात्मक-ऊर्जा तमाम बार पौराणिक ग्रंथों और पुरानी पीढ़ी की रचनाओं से मिलती है वहीं नए के प्रति आग्रह को लेकर पाश्चात्य के प्रति मोह उनमें बना रहता है. इतिहास और पाश्चात्य के इसी द्वंद्व पर विमल जी ने खास तौर पर अपने विचार दिए हैं. साथ ही महाकाव्यों से लेकर नयी कविता के बीच तमाम ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु भी निर्धारित किये, जहां से आगे का रास्ता साफ़ तौर से देखा जा सकता है. कविता के लिए सबसे महत्वपूर्ण कुछ कवियों की ओर संकेत भी किया कि किस तरह से कुछ खास सन्दर्भों में कवि या कृति अपने शाश्वत धर्म का निर्वाह करती है. उनकी दृष्टी उन रचनाकारों पर जाकर ठहरी जिन्हें क्रान्तिकाल के समय में सुरक्षित रखना जरूरी होता है. जो ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें किसी वाद या आंदोलन के बतौर चाहे कोई देखे या न भी देखे मगर इससे उनका महत्त्व कतई कम नहीं होता. बात ही बात में वो नई कहानी के तमाम हिस्सों से परिचित भी कराते चलते हैं और साहित्य के वर्तमान धरातल पर उन कृतियों को जिनमें सांस्कृतिक-सामाजिक विराटता की छवि अंकित है. समूचे अस्तित्व का हिस्सा बन जाती है. उनके बारे में एक खास नजरिये से बात की है. साक्षात्कार का अंत अपनी तीन काव्य-रचनाओं से करते हुए वो तमाम सारी बातें उसके जरिये कह जाते हैं. जोकि अपने समय की गवाही देती नजर आती हैं.
विश्व की विभिन्न भाषाओं में रची महानतम कृतियों का हिन्दी में अनुवाद करने वाले हरिवंशराय बच्चन ने जो कार्य ताउम्र किये हैं. उनके संचयन और संकलनकर्ता के रूप में रचनाकार अजित कुमार ने रचना और उस के वैश्विक-उत्तरदायित्व को लेकर लंबी चर्चा की है. जिसमें रचना और रचनाकार का मूल्यांकन करते हुए वो ऐसे सवालों से गुजरे. जहां कोई कृति किस तरह चेतना से गुजरकर समूचे मानवीय फलक तक चली जाती है. संभावनाओं का यह अपार तल एक संवेदनशील व्यक्ति के बतौर गहन अध्ययन की प्रक्रिया से होकर ही समझा जा सकता है. किसी भी राष्ट्रीय धरोहर का अन्य भाषा में अनुवाद जाहिर है बहुत सारी समस्याएं, चुनौतियाँ लिए समक्ष होता है. मगर किस तरह से एक रचनाकार तमाम कठिनाइयों से सरोकार रखते हुए अनुवादक की उस धरोहर को अपनी सांस्कृतिक धरोहर के बतौर अपनी समझदारी दिखाता है. और अनुसृजन को बदली हुई जमीन में लगातार बनाये रखते हुए स्वयम को उससे पृथक नहीं होने देता. साथ ही अनुसृजन में आये नयेपने, यथार्थ को आलोकित करने का नवीन धरातल भी तलाशता है. और नकारात्मक विचारों वाले आलोचकों के समक्ष डटकर उसका सामना भी करता है. साथ ही प्रगतिशील होने की दिशा में निरंतर आगे बढता है. यह बात अजित जी बखूबी समझते हैं. अजित इस बात से वाकिफ हैं कि कविता दुनिया का ग्लोब है. और जिस तरह दुनिया के तमाम हिस्सों में राष्टों की अपनी-अपनी एक निश्चित धुरी है. तथा तमाम देशों की एक ही पृथ्वी है. और उसकी शाश्वत धुरी है. जिसमें कभी भी, किसी तरह का बदलाव नहीं आता. इसीलिए हर देश का भले ही अपना-अपना पृथक-पृथक साहित्य क्यूँ न हो. मगर अनुसृजन में भिन्न-भिन्न देशों की कृतियों का स्वायत्त अस्तित्त्व तमाम पृथकताओं के बावजूद रचना का शाश्वत अर्थ सदैव बनाये रहता है. यही अनुसृजक की अपनी निजी पहचान है.
कविता में इसी धुरी को बनाए रखने वाले रचनाकार बोधिसत्व ने अपनी रचनाओं के माध्यम से शब्दों के बने बनाये पारिभाषिक अर्थों को नए-नए संदर्भों और अर्थों में ढालने का लगातार प्रयास किया है. इसीलिए बिना किसी मतभेद के शर्वेश्वर दयाल जैसे कवि को लेकर भूले-बिसरे समय से वापस खीचकर उनकी प्रमाणिकता पर निःसंदेह खुलकर बात करते हैं. कविता को मात्र काव्याशास्त्रीय सिद्धांत पर कसकर देखने की बजाय उसे जनमानस के चित्त का विषय मानते हैं. इसीलिए उनसे जब समकालीनता पर बात की गई तब वो समकालीनता को किसी एक निश्चित काल-खंड तक सीमित न रखकर उसे भिन्न नजरिये से देखने की दृष्टि पर जोर देते हैं. इसके साथ ही वो हर युग की कविता से यह उम्मीद भी रखते हैं कि वो अपने समय और संकृति के बदलावों के साथ जीते हुए भी अपनी मौलिकता को न बिसराए. प्रतिमानों को और ज्यादा पैना करे. प्रतीकों को और भी अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली बनाए.
इसी प्रकार अन्य रचनाकारों ने अपनी-अपनी दृष्टी तमाम विषयों को लेकर इस अंक में रखी है जिसे पढकर आप पाठक यह तय करें कि क्या कुछ बदलाव साहित्य में हुआ है और किस तरह से इस परिवर्तन को प्रगतिशीलता व मानवीय संस्कारों के विकास में देखा जा सकता है. उम्मीद है आप सभी बुद्धिजीवी लोग हमारे इस प्रयास को सराहेंगे. यदि आपके कुछ सुझाव हों तो अवश्य ही हमें जिस माध्यम से सुविधा हो सूचित अवश्य करे. अगला अंक हम जल्द ही आपके सामने लाने का प्रयास करेंगे. जो जनांदोलनों पर आधारित है. आप सभी का सहयोग वांछित है.
- अनिल पुष्कर कवीन्द्र
© 2011 Anil P. Kaveendra; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: अनिल पु. कवीन्द्र
जन्म स्थान: इलाहाबाद, उ. प्र.
शिक्षा: बी. ए. (यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद), एम. ए., एम. फिल., पी-एच. डी. (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
अनुभव: म्यूज़ ऑफ़ मर्मर (काव्य एवं कला विशेषांक - 2008, अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण) में सहायक सम्पादक, इण्डियन स्पोर्ट्स एण्ड कल्चरल सोसाइटी में सलाहकार
संप्रति: अरगला में मुख्य सम्पादक
कवितायें: सरिता, कादम्बिनी, उन्नयन, गुड़िया, प्रस्ताव, तरुण घोष, हेरिटेज़, मुक्ता, महकता आंचल, नवनीत एवं सरस सलिल इत्यादि में कवितायें प्रकाशित
कविता संग्रह: दीवार, ख़िलाफ़ हूँ मैं, पीली घास (प्रकाशनाधीन)
कहानियाँ: तरुण घोष इत्यादि में कहानियाँ तथा हंस, सरिता, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), गुड़िया एवं तमाम साहित्यिक - ग़ैर साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पत्र प्रकाशित
उपन्यास: अरगला (प्रकाशनाधीन)
हिन्दी अनुवाद: चीतों की फ़सलेगर्मा (केकी एन. दारूवाला की 'ए समर ऑफ़ टाईगर्स'), डबलिन वाले (जेम्स ज्वायस की 'डब्लिनर्स'); प्रकाशनाधीन.
अभिरूचियाँ: काव्य लेखन, कथा साहित्य, तैल चित्र, रेखाचित्र एवं साहित्यिक अध्ययन
सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियाँ: कदम फ़िल्म्स द्वारा निर्मित "काले लोगे का रंग लाल है" में पार्श्व आवाज़; इलाहाबाद नाट्य संघ द्वारा आयोजित नाट्य परिचर्चा में "नींव का पहला पत्थर" नाटक में स्क्रिप्ट लेखन एवं अभिनय; गुड़िया, बचपन बचाओ आंदोलन जैसी कई समाजसेवी संस्थाओं में कार्यकर्ता के रूप में कई वर्षों तक कार्य; कई चित्रकला प्रदर्शिनियों में 100 से भी अधिक कला कऊतियाँ प्रदर्शित
यात्राएँ: भारत के अधिकांश शहर और इस साल आयरलैण्ड जाने की तैयारी
संपर्क: 210, झेलम, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, 110067
वेब साईट: http://www.argalaa.org