इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अभिमन्यु: भारतीय संस्कृति को आप वैश्विक परिदृश्य में आप कहाँ पर देखते हैं और उनकी क्या विशेषतायें पाते हैं?
अकील अहमद: कोई भी संस्कृति, तहज़ीब को इलाकाई परिदृश्य में देखना चाहिए. और इलाके से जो भी तहज़ीब बनती है. उसका खाना. पीना, रहन. सहन वो उस इलाके से बनती है. उसको अगर हम पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखेंगे, तो वो नहीं देखना चाहिए. और उसे उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए. लेकिन, जैसे. जैसे दुनिया एक तरह से ग्लोबल बन रही है. ब्रिज़ की तरह से बन गई है, तो उसमें उसका असर आना स्वाभाविक है. और उसका असर हो भी रहा है. लेकिन हमें अपनी तहज़ीब को अपनी संस्कृति को बचाना आज के दौर का सबसे बड़ा मसला है. हम अपनी संस्कृति में, जो पुरानी चीजें हैं, जो संस्कार मूल्य है, जो हमारी संस्कृति को बचाकर रखे है. और जो कुछ नया आ रहा है. विकास हो रहा है, उसे हम कैसे बचाए रख सकते हैं? ये एक बहुत बड़ा सवाल है.
अभिमन्यु: क्या आपको लगता है कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से बेहतर हो सकती है? क्या संस्कृति का मूल्यांकन करते हुए देशकाल और लोकाचार को ध्यान में रखा जाना चाहिए?
अकील अहमद: बिल्कुल, देशकाल और सब कुछ को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि आप देखिए, कि जब सिस्टम बदलता है. इसी के हिसाब से संस्कृति बदलती है. तहज़ीब बदलती है. जब विकास होता है विकास के साथ. साथ कुछ नई चीजें आती हैं. जो हमारे रहन. सहन को बदलती हैं. आप देखिए, पहले जो मुगल काल है. जिसे गंगा. जमुनी तहज़ीब कहते हैं, वो आई. उसमें कई तहज़ीबें मिलीं. जैसे. ईरान के लोग आए, अरब के लोग आए और फिर जो यहाँ की तहज़ीब थी. यहाँ का जो कल्चर था, उसमें सबके मेल. मिलाप से नई ज़ुबान भी बनी, नई तहज़ीब आई. संस्कृति भी बनी. तो ऐसा नहीं है कि कोई तहज़ीब मिट जाती है. तहज़ीब, भाषा, संस्कृति, ज़बान अग़र उनमें आपमें मेल. मिलाप का मिज़ाज़ होता है, कि एक. दूसरे से मिले. वो संस्कृति आगे बढ़ती है. इसी तरह वो आगे की तरफ विकसित होती है. यह कारण है वरना वो तहज़ीब ख़त्म हो जाती है.
अभिमन्यु: अभी तक जो उर्दू का प्रगतिशील साहित्य है उसमें कितने लोग हैं, जो प्रेमचन्द की विरासत का अनुसरण कर रहे हैं?
अकील अहमद: प्रेमचन्द उर्दू और हिन्दी में भी एक ऐसा नाम है, जिसे कहिए 'फिक्सन 'है. उसे छोड़ा नहीं जा सकता बीच में ऐसा होने लगा कि कहानी ग़ायब हो गई. या यों कहिए, कि जो न समझ सके वही अच्छा है. कुछ इस तरह की बातें भी की जाने लगीं. लेकिन अब उर्दू और हिन्दी में अफ़सानों में, कहानियों में कहानीपन फिर आ गया है और फिर से लोग प्रेमचन्द का अनुसरण दोबारा करने लगे हैं.
अभिमन्यु: कुछ लोगों के अगर आप उदाहरण दे सकते हैं तो हमें जरूर बताएँ. वो कौन लोग हैं, जो प्रेमचन्द की विरासत का अनुसरण बख़ूबी कर रहे हैं? और मध्यमवर्गीय, निम्न वर्गीय जो संस्कृति हैं उनको लेकर के काम कर रहे हैं. उनकी समस्याओं को लेकर बात कर रहे हैं?
अकील अहमद: प्रेमचन्द का ज़माना देखिए !उनके जमाने में राजेन्द सिंह 'बेदी 'लिख रहे थे, मण्टो लिख रहे थे, कुर्तुलन हैदर लिख रही थीं. इसके बाद इस्मत चुमताई हैं और अहमद नदीम काज़मी हैं. इनके यहाँ दो चीजें हैं, जिस तरह से देहात की तस्वीर जैसा प्रेमचन्द ने खींची है. वैसा अब नहीं लगता. लेकिन जो कहानी प्रेमचन्द ने दी है. हिन्दी कहानी और उर्दू अफ़साने में उसका चलन फिर हो गया. देखिए, प्रेमचन्द के ज़माने में किसान बहुत महत्वपूर्ण था. अब वो किसान उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया. बल्कि एक ऐसा वर्ग आ गया जो मज़दूर है. जिसमें रूस का भी असर रहा, जो प्रेमचन्द के यहाँ भी दिखाई दिया. मजदूरों का जो तबका हुआ. जो ऑफ़िस में काम करने वालों का तबक़ा हुआ. जो नई संस्कृति थी नई तहज़ीब से जो कुछ पैदा हुआ. वो अब अफ़सानों में, कहानियों में ज़्यादा आने लगा. लेकिन प्रेमचन्द ने जो उपन्यास और कहानी की शुरूआत की थी. उसका अनुसरण किसी न किसी रूप में सबसे ज़्यादा हो रहा है.
अभिमन्यु: एक नारा था. फ़ैज़ अहमद फ़ैज का. उठे 'गान अनहलक का 'का संस्कृत में अनुवाद है अह्म ब्रह्मास्मि. जबकि जो इस्लामिक कल्चर है उसमें अहम ब्रह्मस्मि नाम का जो शब्द है अस्तित्व में नहीं है कि मैं ही खुदा हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ.
अकील अहमद: देखिए, ये तो है इसमें भी. अनहलक का नारा था. हाँ, ये बहुत पुराना है और शाहजहाँ के बाद का है. मतलब औरंगजेब के ज़माने में. एक सूफी थे 'सरमत '.उन्होंने कहा था कि मैं ही खुदा हूँ तो ये तसव्वुफ की सलाह है. सूफीवाद में है कि जब बन्दा ख़ुदा के इतने क़रीब पहुँच जाता है कि उसमें लीन हो जाता है, तब वो कहता है कि मैं ही खुदा हूँ. हालाँकि इस्लाम में, जैसा आप कह रहे हैं वो ठीक बात है. कि ये नहीं जा सकता. लेकिन एक है 'मार्फत 'का जो तसव्वुफ में है कि सब कुछ वो दुनिया में मिटा चुका, अपनी हस्ती भी मिटा देता है. उसकी अपनी हस्ती नहीं रह जाती. तब वो ये बात कहता है. और अनुवाद इसे नहीं कहना चाहिए क्योंकि इस तरह का कॉन्सेप्ट रहा है. ये संस्कृत में भी है और दूसरी जगह भी ऐसा मिलता है.
अभिमन्यु: लेकिन सरमत को औरंगज़ेब ने तो मरवा दिया था?
अकील अहमद: हाँ, मरवा दिया था, लेकिन कहा तो था कि मैं ही खुदा हूँ सरमत ने.
अभिमन्यु: उर्दू को शुरूआती दौर में 'हिन्दवी 'कहा गया. उसने पूर्ण रूपेण 'उर्दू 'के रूप को कब धारण किया?
अकील अहमद: ग़ालिब ने अपने एक पत्र का नाम रखा जब उसका संकलन हुआ. एक का उसने उर्दू. ए. मुअल्ला रखा दूसरे का उर्दू. ए. हिन्दी रखा. उस ज़माने में भी उर्दू का इतना प्रभाव इस स्तर का नहीं था. 'उर्दू 'भी कहते थे 'हिन्दवी 'भी कहते थे. 'रेरवता 'भी कहते थे. लेकिन अंग्रेरज़ी ने फोर्ट विलियम कॉलेज़ बनाया, तब तय हुआ इसमें हिन्दी भी पढ़ाई जायेगी और उर्दू भी पढ़ाई जायेगी. अगर आप देखिए, उर्दू और हिन्दी को बोल. चाल की हद तक, तो इसमें कोई अन्तर नहीं है. जो साहित्य की विधायें हैं, उसमें फर्क आता है. जब अमीर खुसरो लिख रहे थे या उनके बाद के ज़माने में भी, तो वो हिन्दी ही लिखते थे. और हिन्दी ही कहते थे 'उर्दू 'का नाम उसमें कहीं नहीं था.
अकील अहमद: आप को नहीं लगता कि भारत की जो अपनी जो गंगा. जमुनी संस्कृति है उसने कई संस्कृतियों पर अपना आधिपत्य व्यापक किया. जिस प्रकार पाश्चात्य संस्कृति ने गंगा. जमुनी संस्कृति पर अपना असर बरक़रार कर रखा है?
अकील अहमद: नहीं, ऐसा नहीं है. इलाकाई तहज़ीबें अभी भी गंगा. जमुनी संस्कृति को, बनायें हैं. ये समझ लीजिए कि नई तहज़ीब आ गई है. गंगा. जमुनी से भी आगे बढ़ गई है. लेकिन अभी भी इलाकाई तहज़ीब अपने आप में मौज़ूद हैं. वो चाहे अवध की तहज़ीब हो. चाहे वो ब्रज की हो, चाहे वो भोजपुरी हो, उनका असर अभी भी बरकरार है. उनमें कोई मुझे नहीं लगता कि आधिपत्य हो गया. लेकिन, ये है कि जो शहरी 'कल्चर 'है उसमें गंगा. जमुनी संस्कृति ने अपना क़दम जमाया है.
अभिमन्यु: जैसा कि देखा गया है, जो भी संस्कृति है उसको आगे बढ़ाने के लिए जबाँ का प्रयोग किया जाता है. और जो बोलियाँ हैं हमारी, उन बोलियों पर सबसे ज़्यादा, असर हिन्दी का, या दबाव रहा है. उन बोलियों से जो साहित्य निकला है, उन्हें किसी भी तरह से हिन्दी या खड़ी बोली से आगे आने नहीं दिया गया?
अकील अहमद: ऐसी बात नहीं है. हिन्दी ने ऐसा नहीं किया है. आप 'रामचरित मानष 'को क्या कहेंगे? ये तो अवधी है और सूर की जो कवितायें हैं उन्हें क्या कहेंगे.
अभिमन्यु:
अकील अहमद: ये हैं कि साहित्य की रचना उन बोलियों में लगभग बन्द हो गई. लेकिन, जो बोली है वो तो व्यवहार में हर जगह बोली जा रही है. और अब फिल्मों में ज़्यादातर लोग स्थानीय बोली को पसन्द कर रहे हैं. भोजपुरी में तमाम फिल्में बन रही हैं. लोकगीत पर आधारित फिल्मी गीत पसन्द किए जा रहे हैं. इस तरह से उसका कहीं प्रयोग में ख़ात्मा तो नहीं हुआ है. लेकिन दब ज़रूर गई है.
अभिमन्यु: भारत के सांस्कृतिक लेखन में आपको क्या लगता है कि सांस्कृतिक अध्ययन या अध्यापन में सबसे बड़ी कमी या भूल कहाँ हुई?
अकील अहमद: इसमें सांस्कृतिक भूल या कमी तो क्या कहेंगे? ये एक वक्त की बात होती है कि वक्त के साथ. साथ हर आदमी बदलता है, तहज़ीब बदलती है, संस्कृति बदलती है, ज़बान बदलती है. अब आज से पचास साल पहले जो उर्दू बोली जाती थी हिन्दुस्तान में, उसमें अल्फ़ाज अरबी और फ़ारसी के ज़्यादा थे. आज उर्दू और हिन्दी इतने क़रीब आ गई है. उसमें इंग्लिश के अल्फ़ाज इतने ज़्यादा आ गए हैं कि उसे आप नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते. उसे आपको अपनाना ही पड़ेगा ;हिन्दी में भी, और उर्दू में भी. इसी तरह साहित्य में ये ज़रूर हुआ कि कुछ समय से या अंग्रेजों के आने के बाद से हमें लगा कि हमारा सब कुछ बेकार है, जो कुछ हमारी सांस्कृतिक विरासत है, इसमें दो तरह की बातें होने लगीं. एक तो ये कि हमें तो आगे बढ़ना है. वहीं पाश्चात्य संस्कृति को अपनाएँ. और कुछ लोग ऐसे भी थे, जो ये समझते थे कि नहीं, हमें अपनी पुरानी विरासत को देखना पड़ेगा सम्भालना पड़ेगा. वहाँ जो कमियाँ हैं उसको लेकर हमें आगे बढ़ना पड़ेगा. इसी तरह से दो धारायें चलीं. और आलोचना का सवाल जहाँ तक है कि वो संस्कृति का हो या अरबी फारसी का हो. अगर आज भी है खाली शेर. ओ. शायरी ही उर्दू है. तो मैं समझता हूँ कि खाली उर्दू को उनके मापदणड़ पे ज़्यादा बेहतर समझा जा सकता है. न कि पाश्चात्य जो संस्कृति है. उसका समर्थन करने वाले जिनका मैं 'नाम नहीं लेना चाहता. उर्दू के साहित्य संस्कृति पर एप्लाई करना उतना उचित नहीं है. लेकिन जैसे. जैसे एक ग्लोबल बनता जा रहा है. बैरहाल, उसका भी सहारा लेना पड़ेगा. लेकिन अपने टूल्स को अपनाना होगा बाद में उसे. ..
अभिमन्यु: जो भी साहित्य उर्दू में लिखा गया, खासकर काव्य को लेकर. उसे इश्क मिजाज़ी का साहित्य कहा गया. उससे आगे उसमें प्रगतिशीलता नहीं दिखाई देती. इसके बारे में आपकी क्या राय है?
अकील अहमद: ऐसा नहीं है, ये कह सकते हैं कि ग़ज़ल के बारे में कहा जाता रहा है. ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसका माने है कि औरतों से बात करना. क्योंकि जब हम ग़ज़ल का इस बारे में इस्तेमाल करते हैं. एक विधा के तौर पर, तो देखिए कि इसमें इशारे होते हैं, कुछ रूपक होते हैं. जिससे हम बात कर रहे हैं. लेकिन उसके मायने कुछ और हैं. जैसा आप कह रहे हैं कि इश्क की बातें की जाती हैं. लेकिन, वह अगर बादशाह के ख़िलाफ़ भी बात कहनी होगी तो आपको इसी तरीक़े को अपनाना था. अगर आपको बात करनी है तो कोई ज़रिया अपनाना होगा. उस जमाने में ग़ज़ल ने इंकलाबी काम किया था. और 'प्रोटेस्ट 'ऐतराज का काम ग़ज़ल में खूब हुआ. पूरी उर्दू शायरी को अगर आप देखेंगे, तो वो इश्क की शायरी नहीं कही जा सकती. उसमें बहुत सारी चीजें हैं ऐसी, ग़ज़ल को ही लें इस दुनिया के किसी भी विषय पर आप ग़ज़ल कर सकते हैं. इसका हर 'शेर 'अलग. अलग होता है. 'मतला 'अलग. अलग होता है. लेकिन कोई बड़ी दास्तान नहीं होती उसमें. इसलिए ये कहना कि इसमें इश्क और आशिकी की बातें थी गलत होगा.
अभिमन्यु: जैसे हिन्दी को राजनैतिक संरक्षण मिलने की वजह से हिन्दुस्तान में विशेष दर्ज़ा मिला. ठीक उसी प्रकार से अरबी. फारसी प्रमाण और नस्तालिक लिपि के कारण पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू को बनाया गया. पंजाबी, सिन्धी, बलूची, कश्मीरी ज़बान की अवहेलना की गई. इसके ख़िलाफ़ कई आन्दोलन भी हुए. जबकि, यह सिर्फ मुहाजिरों की भाषा हैं. लाहौर में आज भी हिन्दुस्तानी बोलने पर यह समझा जाता है कि वो करांची से आया कोई व्यक्ति है भाषा के इस राजनीतिकरण पर आप के क्या विचार है?
अकील अहमद: ये समझिए जैसे हिन्दी को यहाँ राजनीतिक सपोर्ट मिला, संरक्षण मिला. उससे ये नहीं कहा जा सकता कि उसका दर्जा बहुत आगे बढ़ गया. हिन्दी का हाल आज भी वही है. जहाँ पहले थी. उसका प्रचार उस तरह से नहीं हो सका. संरक्षण मिला ही नहीं. अगर, सच पूछिए तो हिन्दी को संरक्षण नहीं दिया गया. अंग्रेज़ी को प्रोटेक्शन दिया गया. अगर संरक्षण दिया गया होता तो आज हिन्दी हिन्दी ही होती. रंग्रेज़ी नहीं होती. आप हिन्दी को लागू करना चाहते हैं तो पूरी तरह से लागू कीजिए. जिससे विकास हो सके भाषिया जैसे सरकारी दफ्तरों में हिन्दी है, तो गम्भीरता से हिन्दी ही प्रयोग कराएँ. जिसको ज़रूरत हो उसके लिए अंग्रेज़ी का भाषिया रखिए. यहाँ तो हिन्दी का अनुवादक रखा जाता है. ये उल्टी बात है. कहा तो जा रहा है कि संरक्षण दिया जा रहा है. और हिन्दी ज़रूरत है आज की. आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान की ज़रूरत है. कि हिन्दी ही मात्र एक ऐसी जबान है जिसके जरिए पूरे हिन्दुस्तान में काम काज किया जा सकता है. बोलने और समझने की भाषा हिन्दी ही है. पूरे उत्तर भारत से कहीं दक्षिण तक जाइए. पूरब से पश्चिम तक कहीं जाइए. हिन्दी के माध्यम से सम्पर्क रख सकते हैं. जोकि किसी और जबान से नहीं कर सकते. इसी तरह पाकिस्तान में संरक्षण नहीं मिला है उर्दू को. पाकिस्तान की ज़रूरत है वो. उर्दू ही एक वहाँ पर ऐसी जबान है जहाँ आम. बोलचाल की जबान को चाहे उर्दू कहें या हिन्दी कहें. ये दोनों जबान बोलचाल की हद तक एक हैं. इनमें कोई फर्क नहीं है. इसी तरह पाकिस्तान में भी उर्दू उनकी जरूरत है. वो पंजाबी के जरिए सिन्ध में काम नहीं कर सकते. वो पंजाबी के जरिए ब्लूचिस्तान में काम नहीं कर सकते. उर्दू के जरिए वो पूरे पाकिस्तान में काम कर सकते हैं. ये अलग बात है कि जो यहाँ से जाने वाले हैं. हिन्दुस्तान से जो पाइकस्तान गए तो वो हिन्दी ही बोलते रहे. और उस जमाने में भी पूरे पंजाब के तमाम स्कूलों में, लाहौर उर्दू स्कूल का एक बहुत बड़ा सेन्टर था. मुशायरा लाहौर से ही शुरू हुआ. पब्लिएकशन का काम वहीं से शुरू हुआ. वो तो बहुत पुराना केन्द्र है. आज फिर ये कैसे कह सकते हैं कि पंजाब की ज़बान सिक्ख पंजाबी है? उर्दू नहीं है. तो ऐसा नहीं होता वहाँ अब भी, जैसे हिन्दी को यहाँ सरंक्षण मिला. उर्दू को वहाँ संरक्षण मिला हुआ है. लेकिन वो कारगर उस तरह से नहीं हुआ. कि वहाँ उर्दू को लागू नहीं किया गया. वहाँ हिन्दी को लागू नहीं किया गया. जो हिन्दी के साथ यहाँ हो रहा हैं. उर्दू के साथ वहाँ हो रहा है. ये किसी भाषा की अवहेलना नहीं क गई यहाँ जो मातृ की अपनी क्षेत्रीय भाषायें हैं वो भी पहले की तरह ही जीवित हैं. लेकिन उर्दू जो है चार प्रदेश की भाषा है वहाँ उर्दू में काम हो सकता है. इसी तरह से यहाँ हिन्दी के जरिए हो सकता है. इस तरह से यहाँ हिन्दी के जरिए काम हो सकता है. लेकिन ये है कि हिन्दी को पूरी तरह लागू किया जाए तब?
अभिमन्यु: लेकिन इसमें जो सबसे बड़ा मसला था हिन्दी उर्दू का, उसका राजनीतिकरण हुआ. आजादी के बाद. जबकि आजादी के पहले ये मसला इस स्तर पर नहीं आया था?
अकील अहमद: नहीं, ये तो आजादी के पहले भी मसला था लिपि का. कि कौन सी लिपि अपनायी जाए? और बैरहाल जो वक्त की जरूरत होती है. अब अगर उर्दू हिन्दी को एक कर लिया जाए तो शायद दुनिया भी सबसे बड़ी जबान हो जाए.
अभिमन्यु: आप को क्या लगता है? कि इसके एक होने के पीछे क्या कारण है वो कौन सी राजनीति है?
अकील अहमद: राजनीति नहीं है. राजनीति इसे क्या कहेंगे. देखिए !दोनों दो जबानें हैं हमारे यहाँ क्या है कि अगर हम नागरी सीख सकते हैं तो आप उर्दू लिपि क्यों नहीं सीख सकते? ये सवाल है. इसको किसी मजहब से जोड़ना कि जो मुसलमान हैं वो उर्दू पढ़ेगे. जो हिन्दू है वो हिन्दी पढ़ेंगे. इस्लाम की भाषा तो उर्दू नहीं है. वो तो अरबी है. या हिन्दू के लिए सीखना चाहते हैं तो वो संस्कृत सीखें क्योंकि हिन्दी में तो कोई स्कोप है नहीं. सब संस्कृत में है. यानि भाषा को किसी धर्म या मजहब से जोड़ना जो है वो गलत है. और जैसे ये कहें हिन्दी सीखते हैं या दूसरी जबानें सीखते हैं हिन्दी वाला अगर उर्दू सीख ले. तो उसके लिए बहुत कुछ बहुत भणड़ार मिल जाएगा साहित्य का. और उर्दू वाला हिन्दी सीख ले तो उसे बहुत बड़ा साहित्यिक भणड़ार मिल जाएगा. अब ये है कि दोनों का आपसी. आदान प्रदान होता रहे. तो बहुत कुछ समस्यायें हल हो सकती है. बहुत काम हो सकते हैं. और जो किताबें हमारी छपती है 500.600वो नहीं खप पातीं तो मेरे ख्याल से 4000छपने लगेंगी.
अभिमन्यु: लेकिन जो सबसे बड़ा मुद्दा है कि हम सबसे ज्यादा मिले. जुले किसी संस्कृति में तो वो इस्लाम के आने के बाद ही हुआ है. खान. पान, रहन. सहन से लेकर के और बोलचाल सभी चीजों में अपनी प्रगतिशील विचारधारा को विकसित किया है तो इस्लाम के आने के बाद ही. जो मिश्रित संस्कृति साझा संस्कृति है. बावजूद इसके यही दो धारायें सबसे ज्यादा अलग दिखाई देती हैं और दोनों धारायें धर्म के कारण अलग दिखाई देती हैं. इस चीज को, इस आधुनिक युग में यानि 21वीं सदी में कहें कि दूर करना हो तो वो कौन सी चीजें है या वो क्या उपाय है?
अकील अहमद: दूर करने की क्या जरूरत है? जैसे दो धारायें हैं हिन्दी उर्दू हैं. इसे आप एक करने की कोशिश क्यों करते हैं? दोनों अलग जबाने हैं. हिन्द में मुसलमान या अरब जो भी आए वहाँ से आकर यहाँ बस गए. यहाँं के होकर रह गए. उनकी जो अपनी संस्कृति थी, जो कुछ भी उनका अपना था. उस अपनी आड़ेन्टिटी के साथ यहाँ पर हैं. और यहाँ की जो कुछ चीजें हैं. उन्होंने अपनाईं और यहाँ की तहज़ीब में जो कुछ वो लाए थे वो भी शामिल हुई. उसी से तो गंगा. जमुनी तहज़ीब बनी है. वहीं तहज़ीब तो है जिसे हम कॉमन तहज़ीब कहते हैं. और हिन्दुस्तान की जो आइड़ेन्टिटी अनेकता में एकता है वो इसी के जरिए तो है. यही एक कर रही है. यही दोनों तहजीबों को मिलाती है. न इस्लामिक तहज़ीब रह गई, न वो यहाँ की तहज़ीब रह गई. बल्कि वो मिली. जुली संस्कृति हो गई मिली. जुली तहज़ीब हो गई. मजहब की बात जहाँ तक है. मजहब की अपनी हर जगह आजादी है. हिन्दुस्तान में ईसाई, सिख, मुस्लिम, हिन्दू सभी के अपने. अपने मजहबी प्रार्थना में जो तरीके हैं वो करते हैं.
© 2011 Aqeel Ahmad; Licensee Argalaa Magazine.
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