इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
रवीन्द्र गौतम: आपके रचनाकार बनने की शुरुआत कैसे हुई?
बोधिसत्व : मैं जब दसवीं में पढ़ता था बात होगी 1984 की. मेरे एक अंग्रेजी के टीचर थे. हालांकि वो मेरे टीचर हुआ करते थे जब मैं 7वीं-8वीं में पढ़ता था तब भी. वो कुछ लोकगीत शैली की कवितायें लिखा करते थे. शनिवार को जब छुट्टियाँ होने को होती थीं तब उसके थोड़ा पहले ही वो अपनी कुछ स्वरचित कवितायें सुनाया करते थे. उस वक्त हम दोस्तों को लगता था कि जब गुरु जी लिख सकते हैं तो हम लोग भी लिख सकते हैं. शुरुआत में हम लोग कभी-कभी उनकी ही पैरोडी पर कवितायें लिखने की कोशिश करते थे. लेकिन लिखने की जो विधिवत शुरूआत हुई जब मैं दसवीं में गया.उस वक्त नाम छपाने की बडी इच्छा हुई. कि हमारा नाम छपे. गाँव का नाम छपे. तो फुटकर में कवितायें लिखना शुरू किया. जब ग्यारहवीं में ज्ञानपुर पढ़ने गया. तो वहाँ कुछ एक लोकल सम्पादक होते हैं न, जो मूलत: विज्ञापनों के लिए पत्रिका निकालते हैं या कहें कि कमाई के लिए. वो क्रान्तिदूत या डाईजेस्ट टाइप के नाम रख लेते हैं. वहाँ मेरी मुलाकात एक ऐसे ही सम्पादक से हो गई जो लगातार इस बात के लिए प्रेरित करते थे कि कुछ लिखो. 1-2 पेज का मसाला तो मैं तुम्हें दे ही सकता हूँ. इस तरह आप कह सकते हैं कि कोई गम्भीर योजना के साथ शुरूआत नहीं हुई. नाम छपाने की इच्छा और सम्पादकों की पत्रिका निकल जाए उसकी योजना. मतलब एक गड़बड़ झाले की तरह यह आयोजन शुरू हुआ. आप कह सकते हैं कि मैंने 1984-85 से विधिवत लिखना शुरू किया. तब मैं हालांकि बालक ही था. ग्यारहवी- बारहवीं में पढ़ता था.
गौतम: आपके विचार में कविता क्या है?
बोधिसत्व : देखो, कविता पहले तो साहित्य का मुख्य भाव हुआ करती थी. और बहुत सारी उसकी परिभाषायें हैं. लेकिन मुझे लगता है कि वह कोई भी कथन, जो आपके मन पर प्रभाव डाले. वह कविता हो सकती है. वह भाषण का टुकड़ा भी हो सकता है. वो कहानी के भीतर गद्य का हिस्सा भी हो सकता है. मैं किसी पारिभाषिक शब्दावली में बात नहीं करूँगा क्योंकि डेढ़ सौ परिभाषायें उसकी दी हुई हैं. लेकिन मेरा मानना है कि लिखित कोई भी वाक्य कविता हो सकता है. अगर वो आप के मन का टुकड़ा हो सकता है. तो कुल मिलाकर लिखा हुआ एक ऐसा वाक्य- विन्यास जो आपको प्रभावित करें. वो लिखा हुआ न भी हो, बोला हुआ हो, वो गुनगुनाया हुआ हो, गाया हुआ हो. लेकिन वो आपको कहीं छूए, आपके मन पर प्रभाव डाले. बुरा और अच्छा कैसा भी प्रभाव डाले. लेकिन वो आपको आकर्षित करे.
दूसरा मेरा ये भी मानना है कि वो आपकी बुद्धि में कहीं बैठी है. कहीं अगर आपको बोलना पड़े. तो एक उदाहरण की तरह आप उसे रख सकें. जैसे बहुत सारे जो अनपढ़ लोग हैं, वो चाहे मध्यकालीन हिन्दी कविता है, जो कबीर या तुलसी को ही बातचीत में इस्तेमाल करते हैं. मेरा मानना है कि वही कविता है. बाकी परिभाषा जो भी हो उससे मुझे कोई लेना देना नहीं है. वाक्यम रसात्मकम काव्यम भी अगर है. तो उसमें रस नहीं है. लोग ये कहें कि नहीं उसमें एक रस ढूँढो. नहीं है जबकि कोई रस. ऐसे बहुत सारे मध्यकालीन कवियों ने लिखा है. लेकिन रस नहीं होता था तो कविता में रस होना चाहिए. कविता में आनद की अनुभूति होनी चाहिए. कविता में छायात्मक प्रभाव होना चाहिए अगर कविता में ये सारी चीजें हों तो कविता हैं. नहीं है तो चाहे वो कुछ हो. कविता नहीं होगी.
रवीन्द्र गौतम: आपके समकालीन कवियों पर आपकी क्या राय है?
बोधिसत्व : देखो, समकालीनता एक बड़ा भारी पैमाना है. बड़ा भारी मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जिन्होंने मेरे साथ लिखना शुरू किया वो भी मेरे समकालीन हैं. और जिसने आज लिखना शुरू किया. वो भी मेरे समकालीन है. या ये कह सकते हैं कि मैं इन दोनों के समकालीन हूँ. एक तो ये कि आप बहुत बडी अवधि की बात कर रहे हैं. जिसमें सौ- दो-सौ कवि तो सक्रिय होंगे ही. इतने सारे कवियों पर इकहरे लाठी मारना मेरा ख्याल है कि कहीं से उचित नहीं होगा. लेकिन फिर भी मैं ये कह सकता हूँ कि दो स्थितियाँ बनती हैं. एक उम्मीद पे दुनिया कायम है. एक ये है कि आप कुछ नहीं हैं , बेकार है. लेकिन अगर मैं मध्यमार्ग अपनाऊँ तो मुझे लगता है कि लोग अच्छा लिख रहे हैं. अच्छा लिखने की तैयारी कर रहे हैं. और निराशाजनक स्थितियाँ हैं. मैं ये नहीं कहता कि बहुत अच्छा-अच्छा लिखा आपने. क्या बात हैं आनन्द आ गया. इस तरह का कोई माहौल नहीं है. और उसमें दु: खद व सबसे बुरी लगने वाली बात है. वो ये है कि आज की जो समकालीन कविता है उसका कोई एजेंडा नहीं है. मतलब सारे वाद पिट चुके हैं. चाहे वो ज्ञानवाद हो या कोई और. नाम लेने की जो भी परम्परा है मैं उस पर नहीं जाऊँगा. सारे वाद पिट चुके हैं सारी योजनायें विफल हो चुकी हैं. और आज ऐसा वक्त आ गया की छूट है. उसमें ये भी हो गया है कि कोई योजना नहीं है कोई प्लान नहीं है. कोई लक्ष्य नहीं है कि हमको यहाँ से ये करना है. तो समकालीन जितने भी कवि हैं वो इसलिए काफी स्वतन्त्र हैं. आनन्ददायी माहौल में पड़े हैं. उनके सामने कोई टारगेट नहीं है. तो हमारी जो समकालीन कविता है उसका माहौल कुछ वैसा है. जिसमें कोई भी कवि बन जाए बहुत सम्भव है. कोई कुछ भी लिखे. कोई भी शीर्षक लिखो और कोई भी पत्रिका उसे पांच कवितायें शीर्षक देकर छापने को तैयार है. बहुत सारी पत्रिकायें निकल रही हैं समकालीन. लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है.
मेरा ख्याल है कि इसी में से अच्छी कवितायें आएगी. बड़ा दुखद ये है कि पिछले कई सालों में कोई बड़ी कविता नहीं आई है. कि जिसको शक्ति पूजा जैसी कविता है. या ये कहें कामायनी की झलक लगती हुई कोई कविता है. मैं ये नहीं कह रहा कि उसी तरह की कविता हो, लेकिन पिछले कई सालों से मेरे जानने, उसे समझने में कोई बड़ी कविता नहीं आई है. मैं भी उनमें शामिल हूँ और देश के तमाम कवि. जो मुख्य धारा में शामिल है. उनकी कोई बड़ी रचना नहीं आई जिसे वो कह सके इसमें हमारा समय परिलक्षित हो रहा है. हमारा समकाल जो है वो उसमें परिलक्षित हो रहा है. समकालीन कविता पर मेरी यह राय है
रवीन्द्र गौतम: अभी आप क्या सोचते हैं? कौन सा कवि आपको बहुत पसन्द हैं?
बोधिसत्व : पसन्द में ये कतई जरूरी नहीं कि जो जिंदा है, और लिख रहे हैं वही पसन्द हों. जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जिनका मैं भक्त हूँ. हालांकि ये कहना भी एक तरह से गुनाह है कि आप किसी को बतायें कि आप उसको पसन्द करते हैं. लेकिन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कवितायें मुझे हमेशा अच्छी लगती रहीं. त्रिलोचन जी की कवितायें मुझे बहुत पसन्द हैं. वो आज नहीं है, लेकिन कल तक हमारे समकालीन थे. या हम उनके समकालीन थे. और नार्गाजुन बाबा की कवितायें मुझे बहुत पसन्द हैं. इसके अलावा ऐसे बहुत सारे कवि हैं जैसे केदारनाथ सिंह की कुछ कवितायें मुझे बहुत पसन्द हैं. कुंवर नारायण जी की कवितायें मुझे अच्छी लगती हैं. और इधर के कवियों में मैं आऊँ तो मुझे आलोकधन्बा की कुछ कवितायें बहुत प्रिय हैं. वीरेन डंगवाल की कवितायें मुझे पसन्द हैं. इसके अलावा मंगलेश डबराल की कुछ कविताए हैं.
रवीन्द्र गौतम: आप प्रभावित सबसे ज्यादा किस कवि से हैं.
बोधिसत्व : मैं प्रभावित सबसे ज्यादा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हूँ. अब अगर कोई मुझे ठीक से पढे. मेरे लिखने पर, मेरे बोलने पर कविता में सर्वेश्वर की छाप मुझे दिखती है. बाकी लोग अगर नहीं देख पाएँ, तो न देख पाएँ. लेकिन मैं खासकर कहूँगा इसे कि मेरी उनकी मातृभाषा थी वो अवधी थी. बस्ती से वो थे और भदोही से मैं था. बोली का एक कारण ये था और कहीं न कहीं ऐसा होता है न, कि कोई कवि आपको पकड़ता है तो मैं सर्वेश्वर की गिरफ्त में हूँ. हालांकि इस बात को कहने से हो सकता है मेरा कोई नुकसान ही हो. क्योंकि आज सर्वेश्वर पर न तो इस तरह से कोई काम हो रहा है. न उनका कोई मूल्यांकन हो रहा है. न कोई बात हो रही है तो आप एक ऐसे कवि का नाम ले रहे हैं, जो आज नहीं हैं. यहीं पर एक बात मैं अलग से कहना चाहूँगा. कि हिन्दी जो है, वो जीवितों की दुनिया है. जीवित लोगों में वो कवि जो ताकतवर हों. पता नहीं और भाषाओं में कितना जाने जाते हैं. अगर मान लीजिए मैं दरोगा होता और हिन्दी का कवि होता. तो आप ये दूसरे तरह का सम्मान करते हुए लोग फूल-माला लेकन खड़े रहते. हिन्दी में निर्बल कवि होना बड़ा अपमानजनक है. निर्बल मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आप सामाजिक रूप से कितने कामयाब हैं. आज हिन्दी के भीतर यही बात प्रभावित करती सी दिखायी देती है. कभी आवश्यकता पड़े तो मैं नाम लेकर बोल सकता हूँ कि इस कवि को इसलिए छापा जा रहा है कि वो इस मुकाम पर है. और ये काम बना बिगाड़ सकता है. लेकिन जो निर्बल, बेचारे और कमजोर कवि हैं. उनको भी संघर्ष करना पड़ता है एक अपनी किताब छपवाने के लिए. ये जो लोकप्रियता का मानदण्ड है. पसन्द नापसन्द का मापदण्ड है. इसमें भी यही चीजें घुस आयी है. तो आप ये मान सकते हैं कि मैं एक ऐसे कवि को पसन्द करता हूँ जो नही हैं अगर एक पसन्द लोभी हो तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ही है.
रवीन्द्र गौतम: हर युग की कविता तमाम नए आयाम छूती है नए प्रतिमान गढ़ती हे. 21वीं सदी की कविता से आपको क्या उम्मीदें हैं?
बोधि: बन्धु, इसमें दो तरह के सवाल हैं. एक तो ये कि 21वीं सदी को अभी नौ साल हुए हैं. अगर आप बाकी के 90साल की योजना पूछना चाह रहे हैं तो जो दुनिया हमने देखी नहीं है. उसमें पता नहीं क्या होगी? कैसे होगा? लेकिन मैने जो भी पिछले उत्तर में बोला कि कोई एजेण्डा नहीं है. कुछ भी एक लिखने का चलन आ गया है कुछ भी. ..हालांकि लोग पहले भी प्रोग्रामिंग करके नहीं लिखते थे. ऐसा नहीं था कि आज सवेरे बादलों पर एक कविता लिखनी है. फिर भी अगर हम 47 के पहले के साहित्य पर जायें तो उनके पास आजादी एक एजेण्डा था. कि अंग्रेजों को भगाना है उनको खत्म करना है. उनसे मुक्ति पानी है और भारत को एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में पाना है. चलो, वो लड़ाई 47 में खत्म हो गई. फिर एक बड़ा एजेण्डा लेखकों के पास आया था जब इमरजेन्सी देश में लगी. कि हमको लोकतन्त्र में बने रहना है. फिर गरीबी एक शाश्वत एजेण्डा है. प्रेमचन्द के समय में भी किसान भूखे मर रहे थे. उनका चरित्र होरी सवा रूपये का गोदान लेकर मर जाता है. उसे अपनी बेटी बेचनी पड़ती है. बे-मेल विवाह कराना पड़ता है. तो ये जो गरीबी का एजेण्डा है मुझे लगता है कि भारत की कुण्डली में लिखा हुआ है. बेकारी का जो नक्षत्र है वो जो नौ खाने होते हैं उनमें पड़ हुआ है. साम्प्रदायिक दंगे किसी खाने में पड़े हुए हैं. किसी और खाने में जातीय हिंसायें हुई हैं. फिर और किसी खाने में भाषा के अस्तित्व का संघर्ष है. ये सारी चीजें भारत की थाती हैं. वे विरासत हैं, कमाई हैं, हजार साल की. जिसमें साम्प्रदायिक विद्वेष है. ये मुसलमान है, ये हिन्दू है. जो एजेण्डे में सभी चीजें होनी चाहिए. अगर ये किसी भी लेखक के खाने में नहीं है. इसका मतलब हैं कि वो लेखन नहीं कर रहा, न ही सही मायने में लेखक रहा. ये एक बड़ा एजेण्डा है. और ये पोलिटिकल पार्टीज का भी एजेण्डा हो सकता है. सामाजिक बदलाव करने वाले संगठनों का भी एजेण्डा हो सकता है. लेकिन इसके अलावा जो नई दिक्कतें आई हैं. आज जिस तरह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं. विदर्भ में या बुन्देलखण्ड में. उनकी दिक्कतें हैं. उसके अलावा जो घरेलू समस्यायें हैं. घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा ही अभी समाप्त नहीं हो पाई है. कहते हैं देश बहुत आगे चला गया है. अगर आप पेंटर हैं तो आपको इस बात पर भी पेंट करना चाहिए कि आज भी बेटियाँ मारी जा रही है. आज भी बहुएं जलाई जा रही हैं. आज भी दहेज को लेकर शादियाँ टूट रही है. और उसकी वजहें हैं आदमी के पास नौकरी नहीं है. वो सोचता है शादी करने से शायद कुछ पैसे मिल जाएँ. शार्ट-टर्म की पॉलिसी है कि चलो पांच साल अच्छे गुजरेंगे. लेकिन उसके पास सपने नहीं है. अगर उसके पास सपने होते तो शायद वो ये रास्ता न लेकर लम्बा रास्ता लेता.
21वीं सदी की कविता में ये है कि बाजार के खतरे हैं. विदेशी कम्पनियों के आगमन हो रहे हैं देश में. इसके अलावा जमीनी धरातल पर बहुत सारी दिक्कतें हैं. बेरोजगारी अपने ही तरीके से बढ़ती जा रही है. जो फासले हैं आर्थिक गैरबराबरी के, वो लगातार बढ़ते जा रहे हैं. किसी को डेढ़ लाख महीने मिल रहा है. किसी को 1500 भी नहीं मिल रहा है. कोई ऐसा है जो रोज 15 रूपये भी नहीं कमा रहा है. तो ये फासले एक समय कहाँ तक जायेंगे. मतलब उसकी भी एक सीमा होगी न. कि आप कहाँ जा कर के रुकेंगे. फिर ये जो रिवेल होगा उसका रिजल्ट क्या निकलेगा. हिंसा के रूप से स्थितियाँ कितनी हिंसक आकार लेंगी. तो अगर हमारे लेखकों के एजेण्डे में ये फार्मूले बना लिए जायें जैसे पहले एक क्रार्यक्रम आता था. 21 सूत्रीय कार्यक्रम. हमारे लेखकों को हमें लगता है कि इनको फोकस करना चाहिए. प्रकृति पर लिखो, किसी ने मना नहीं किया है. सूर्योदय, सूर्यास्त तुम्हारे न लिखने के बाद भी होंगे. पानी बरसेगा. लेकिन अभी ये जो कोपेन हेगन सम्मेलन हुआ ये बता रहे हैं. कि पानी नहीं बरसेगा. तो इस पर भी गम्भीरता से सोचना पड़ेगा. कि हमको आपको 'बादल को घिरते देखा है’ जैसी कविता सपने में देखेंगे. कि सपने में बादल को घिरते देखा है. हम लोग बचपन में जब काफी छोटे थे. हम लोग इस तरह की बातें गाँव में करते थे कि पेड़ लगाने चाहिए जिसमें चार आपके जीवन के लिए नहीं होगा. सिर्फ एक आपके जीवन के लिए होगा. बाकी चार आप आगे के लिए लगा दें. तो साहित्य में कुछ आप वृक्षारोपण करो. कुछ कंटेंट हो जिससे हो सकता है काम को वही आसान बना दे. प्रेमचन्द ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि वो जोगियों पर एक उपन्यास लिख रहे हैं. लेकिन बड़ दुर्योग की बात है कि जोगियों पर आज तक कोई उपन्यास नहीं लिखा जा सका . 73-74साल हो गए. 35-36 में उन्होंने ये बात कही थी. अगर आज मुझे मौका मिले तो मैंने कुछ रिसर्च बगैरह किया है. इस तरह से भी आप काम कर सकते हैं. कुछ काम आप बता दो कि मैं नहीं इस विषय पर लिख पा रहा हूँ आप लोगों को लिखना चाहिए. कि ये मुददे हैं जो छूट रहे हैं. ऐसी प्रोग्रामिंग करनी चाहिए, जिसमें लेखक संगठनों की भूमिका रहे. व्यक्तिगत संस्थाओं की भूमिका हो, सरकारी सस्ता जो वजीफे देती हैं. उन्हें आप बता सकते हैं कि आप इस विषय पर काम कर सकते हैं. ऐसे भी एजेण्डे बनाए जा सकते हैं. 21वीं सदी की कविता और साहित्य से मेरी यही उम्मीद भरी अपेक्षा है.
गौतम: नई कविता और समकालीन कविता के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध के बारे में बताएँ?
बोधिसत्व : देखो भाई, ये द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है आज तक मेरी समझ में तो आया नहीं. हालांकि सम्बन्ध वही अच्छा होता है जो द्वन्दात्मक है. एक-दूसरे को कुछ प्रभावित करे. लेकिन मुझे लगता है कि नई कविता को खत्म हुए एक अरसा बीत गया, बीच में बहुत सारे वाद और धारायें आईं. बीच में प्रगतिशील कविता का जो उत्तर पक्ष था, जोकि कविता की वापसी के नाम से जाना गया. 1980 के आस पास शुरू हुआ. तो मुझे लगता है कि नई कविता को लोगों ने इस तरह से लिया कि यह कर चुके हैं. तमाम वादों से ग्रस्त कविता को लोगों ने पीछे छोड़ दिया है. इस कविता में प्रयोग के स्तर पर वैसी चीजें नहीं है, लेकिन इस का जो दायरा है वो बहुत बढ़ गया है. तो आप कह सकते हैं इसी तरह का एक रिश्ता है. कि उन्हें उससे एक सीख लेनी है. जो कि कोई नहीं चाहता. हम पूरी तरह समाज निरपेक्ष और व्यक्ति निरपेक्ष, दुख निरपेक्ष, और मुद्रा निरपेक्ष नहीं है. कि घर जल रहा हो तो जलाओ, लेकिन हम उस पर जायें नहीं. आज कविता रेखांकित करती है. ये मेरा ख्याल है कि उसने नई कविता की विफलता से सीखा है. मुझे यही लगता है कि नई कविता से यही सीखा है आज के कवियों ने और आज की कविता में भी स्वदेशिता का कोई फोकस नहीं है. ऐसा नहीं है कि मुझे ये पाना है. मुझे एक अच्छी कविता लिखना है आज बात यहाँ पर आकर अटक गई है. एक अच्छी रचना करनी है. उसके लिए सभी फितरतें हैं सारी आजादियाँ हैं.
रवीन्द्र गौतम: राजतन्त्र और व्यवस्था के विरूद्ध जब कवि रचना करता है. तो बौद्धिक श्रम ज्यादा होता है याकि सर्जनात्मक सृजना?
बोधिसत्व : देखो एक तो आपने बोला- राजतन्त्र के विरोध में. क्या राजतन्त्र को सत्ता लोकतन्त्र कहना चाह रहे हैं या सत्ता कहना चाह रहे हैं? आप राजतन्त्र को सत्ता , लोकतन्त्र या लोकशाही क्या मान रहे हैं?
राजतन्त्र से मेरा मतलब है सत्ता से.
बोधिसत्व : अगर हम सत्ता के खिलाफ सोचते हैं, तब दरसल हम व्यवस्था के खिलाफ सोचते हैं. जो हमारा सामाजिक परिवेश हैं. हम उसके खिलाफ सोचते हैं. और उसमें उसके खिलाफ सोचने का मतलब है उसकी खामियों के खिलाफ सोचना. क्योंकि अगर सत्ता में अच्छाई है. रात में चोरियाँ नहीं हो रही है तो हम उसके खिलाफ काहे को जाएंगे? उसमें सोचने के लिए हमारा विवेक पता नहीं कितने हिस्सों में बँटा है? अब हम साइंस की बात तो कर नहीं रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि दोनों साथ ही सक्रिय होते हैं. हम पहले किसी की तकलीफ देखते हैं तो हमें धक्का पहुँचता है तो हम सोचना शुरू करते हैं, या कभी-कभी कोई चीज हम पहले समझते हैं फिर हम सोचना शुरू करते है. लेकिन आज साइंस ने समझा दिया है कि आज दिल नाम की कोई चीज नहीं है. दिमाग से ही आप सोचते हैं और दिमाग से ही आप भावुक होते हैं. दरसल जो संवेदना है वो मन की ही एक दूसरी अवस्था है. जिससे आप कहते हैं कि ये अच्छा नहीं हो रहा है और ये बुरा हो रहा है. जैसे कहते हैं न, कि वो बड़ा दिलेर आदमी हैं. वो मानसिक रूप से बड़ा कठोर आदमी है. आप कह सकते हैं कि वो अपनी चेतना से सोचता है, और उसी के विभिन्न हिस्सों को अप्लाई करता है और उसी में सोचता है. आप कह सकते हैं उसी में संवेदना या नैतिक होकर कि ये करना है या नहीं करना है? दोनों एक ही एंगल हैं कि आप सोचते हैं उसमें आप गम्भीरता से लगते हैं या नहीं. दूसरा ये कि जब हम ऐसी विसंगतियाँ देखते हैं तो हम ऐक्टिव होते हैं.
रवीन्द्र गौतम: आपकी कविता इतिहास बोध के आधार, इतिहास के विश्लेषण पर ज्यादा आधारित है या संवेदना से? कहने का मतलब है कि इतिहास दृष्टि, इतिहास का विश्लेषण आप तटस्थ होकर करते हैं या कि पूर्वाग्रहित भावना से उत्प्रेरित होकर?
बोधिसत्व : एक तो ये कि कवि किसी भी वैचारिक तथ्य को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने में स्वतन्त्र है. अब मैं जो इतिहास की स्थितियां हैं, इतिहास के जो प्रभाव हैं. उनको लिखने का अपना ढंग होता है. लेकिन हमने कभी उसको उस तरह से आधार बनाया नहीं है. मैं ये कहना चाहूँगा कि हम इतिहास से सीखते हैं सबक लेते हैं. लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने उसे ही एजेण्डा बनाया.
दूसरी बात इतिहास का हम जब भी इस्तेमाल करेंगे तो पूर्वग्रह और भावना दोनों तरह से रस्सी पर चलने जैसा है. लेकिन अमूमन ऐसा होता है कि हम तटस्थ नहीं रहते हैं उसमें एक वैचारिक नजरिया रखते हैं. चाहे वो मध्यकाल की घटनायें हों चाहे पुराने भारत की घटनायें हों. आप उससे निरपेक्ष नहीं रह सकते हैं. क्योंकि वहीं आपकी पारम्परिक धरती है. आपकी विरासत हैं. पुरखे वो छोड़ गए हैं. उसमें आपको संलग्न तो होना पड़ेगा. आप चाहे इधर हों या उधर हों. आप उसको कम्युनल तरीके से भी देख सकते हैं. आप उसको एक घटना की तरह से भी देख सकते हैं. जैसे मान लो जो बाहरी आक्रमण रहे हैं मध्यकालीन भारत में. आप उनको ये कह सकते हैं कि हमारे पुरखों की नादानी थी. आप ये भी कह सकते हैं कि जिन लोगों ने आक्रमण किया उनकी चालाकी थी. लेकिन जो निर्णय, निष्कर्ष निकले उससे आप शिक्षा भी ले सकते हैं. लेकिन इसके अलावा भी बहुत सारी चीजें होती हैं. इतिहास केवल युद्धों और झगड़ों का ही प्रपंच नहीं है. इसमें बहुत सारे सामाजिक बदलाव भी होते हैं. भक्ति आन्दोलन है तो उसमें बहुत सारी दूसरी धारायें भी चल रही हैं. उससे निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता. पूर्वाग्रस्त होकर भी आप अल्टीमेटली उसको यूज़ ही करते हैं. वो निरपेक्ष होने के अलावा बाकी सब हो सकता है.
रवीन्द्र गौतम: भारतीय इतिहास के किस समय ने आप को रचनाकार्य हेतु सर्वाधिक प्रभावित किया और क्यों?
बोधिसत्व : मैंने भारत के इतिहास को जहाँ से उपलब्ध है. वहाँ से लेकर आज तक पढ़ा हुआ है. लेकिन अभी तक भारतीय इतिहास के आधार पर मैंने कुछ लिखा नहीं है. अगर मुझे कभी लिखना होगा तो मैं उपनिषदों के समय का भारत, वेदों के समय का भारत, या रामायण और महाभारत काल के समय के भारत के बारे में कुछ नया लिखने में मुझे अच्छा लगेगा क्योंकि उसको मैंने खूब करीब से देख लिया है. उसके चरित्र, उनकी समस्यायें उनकी घटनायें और दुर्घटनायें यहाँ तक की बुद्ध का समय है उससे भी मैंने अपने आपको काफी समृद्ध किया है. लेकिन लिखा मैंने उस तरह का अभी तक कुछ भी नहीं है. मैं अगर लिखूँगा तो आदिकालीन भारत और मध्ययुगीन भारत जो कृषि प्रधान भारत रहा है. याज्ञ्वलक्य और उनकी पुरानी स्थितियों, जगंलों में भटकते ऋषि-मुनि को लेखक ज्यादा पकड़ता है ऐसा लगता है मुझे कि सच्चा भारत वही है. मोटरगाड़ी और पहियों यन्त्र में फंसा भारत थोड़ा अमेरिका जैसा दिखने लगा है.
रवीन्द्र गौतम: साहित्य मर्मज्ञ और इतिहास के अध्येता होने के नाते क्या आप ऐसी भविष्योन्मुख संरचना होते हुए देख पा रहे हैं. जिससे मनुष्य की संवेदना और साहित्य में किस तरह के परिवर्तन होंगे इसका अन्दाज इस युवा पीढ़ी को हो सके.
बोधि: आज जो साहित्य है वो कैसे प्रभावित करेगा? इसको हम कह नहीं सकते. लेकिन हमारी भविष्योन्मुखी भावनायें योजनायें हैं पीछे भी मैंने कहा कि इतनी सारी समस्यायें हैं और लिखा कुछ नहीं जा रहा है तो इन सब को लेते हुए साहित्य में रूझान पैदा करने के क्या उपाय होंगे? मैं कह नहीं सकता. लेकिन आज स्थितियाँ यही हैं कि साहित्य का कोई वैसा दखल नहीं रह गया है कोई वैसी उपयोगिता नहीं रह गई है. मुझे मेरी जिन्दगी में अब तक 100 लोग नहीं मिले हैं जिन्होंने कहा हो कि उन्होंने मुझे पढ़ा है. 20-22 साल से लिख रहा हूँ और मुझे 100 नॉरमल लोग नहीं मिले हैं. क्योंकि जो मिलते हैं साहित्य के. वो या तो लेखक होते हैं छुपे हुए. या वो सम्पादक होते हैं, या उनका और कहीं काम होता है. लेकिन पाठक तो हिन्दी में नहीं है. ये मुझे बड़े दुख के साथ स्वयं कहना पड़ रहा है. कविता के पाठक तो खासतौर से नहीं है. कभी-कभी ऐसे अपरिचित लोगों की चिट्ठी आती है कि मैंने आपको पढ़ा बड़ा अच्छा लगा. फिर डेढ़ दो महीने बाद देखता हूँ कहीं दो तीन कवितायें छपी हैं. तो पाठक होने का अभाव फिर खत्म हो जाता है. आप इसे चाहे शर्मनाक मानें या अफसोस मानें. हिन्दी में पाठक का कॉन्सेप्ट लगभग खत्म है.
रवीन्द्र गौतम: इसके लिए क्या करना चाहिए?
बोधिसत्व : सरकार तो कोई योजना पाठकों की निकालेगी नहीं. कि पढ़ों और खुश रहो. कोई अध्ययन केन्द्र भी नहीं बनेंगे. आप कैसा लिखते हैं उसी से पाठक आएंगे. एक बात आप जान लीजिएगा प्रेमचन्द को आज भी लोग पढ़ रहे हैं. तुलसीदास और प्रेमचन्द को लोग क्यूँ पढ़ रहे हैं. इसलिए पढ़ रहे हैं कि जब हम तुलसीदास एवं प्रेमचन्द को पढ़ते हैं कि ये
हमारी ही बात कर रहे हैं. या ऐसी स्थितियों की बात कर रहे हैं जिसको हम जानते हैं. अगर निर्मला आज हम पढ़ते हैं तो भी वहीं लड़कियाँ दिखती हैं जिनका विवाह किन्हीं स्थितियों में किसी बूढे आदमी के साथ कर दिया जाता है. जिसकी अपनी उमर के सौतेले बेटे हैं. देवदास की भी वही समस्या है, पारो वहाँ देखती है, निर्मला यहाँ देखती हैं. लेकिन कंटेंट क्या है? पाठक उसी पर आएंगे. मैं अपने मन की गप्प करूँगा तो मेरा पड़ोसी मुझे क्यूँ पढेगा. जब तक कोई बड़ा मुददा मैं नहीं उठाता हूँ. जब तक कोई बड़ी बात मैं नहीं कहता हूँ. मुझे कोई क्यूँ पढ़ेगा. स्वान्त: सुखाए है तो तुम पढ़ो. लेकिन जब तक समाज को रिफ्लेक्ट नहीं करेगा. मैं ये इसलिए कह रहा हूँ. विदर्भ के किसानों की जमीन की समस्या हो तो लोग कहेंगे पढ़ो, देखो इतनी भयावह स्थितियों का चित्रण हो रहा है. जूहू पर बैठे एक अच्छे जोड़े पर भी एक अच्छी 'लव स्टोरी ' हो सकती है.कि उसे पढकर ऐसा लगे और वो जेन्यून लव स्टोरी है जिसमें आज उनकी सामाजिक दिक्कतें हैं. घर में उनके थप्पड़ पड़ रहे हैं या खुश हो रही हैं कि चलो कोई मर्द लड़का हैं लेकिन. ये सब कुछ न हो तो कुछ और ही कर रहे हैं जो अजनबी कविता में हो रहा है. तो मुझे कोई क्यूँ पढ़े. पहला सवाल तो मुझी से किया जाना चाहिए. कि मुझे कोई क्यूँ पढे? जब ये सवाल आएगा तब मुझे क्या लिखना चाहिए ये सवाल भी आएगा. और जब मैं उस लेखन को बदलूँगा तब शायद मेरे पाठक आएँ. भविष्य के पाठक भविष्य के लिखे पर ही आएंगे जैसे आज के पाठक आज के लिखे को पढ़ रहे हैं. और मुझे नहीं लग रहा कि अभी तक ऐसी कोई योजना दिख रही है. क्यूँकि कहीं न कहीं मैं ये भी मानता हूँ कि जो मुझे रूचता है मैं उसी को पेश कर देता हूँ.
रवीन्द्र गौतम: हिन्दी पुस्तकालयों में और बाजार में साहित्य आज भी सहजता से उपलब्ध नहीं है कि अच्छा साहित्य कहाँ मिलेगा. ऐसा कुछ महसूस नहीं होता आपको?
बोधिसत्व : मुझे ऐसा इसलिए नहीं महसूस होता क्योंकि मैं उस पूरे तन्त्र को जानता हूँ लेकिन जब आप अच्छा जूता ढूँढ लेते हैं अच्छे लड़के तलाश लेते हैं, बहनों की शादियों के लिए. आप अच्छा दोस्त तलाश लेते हैं. 79 नंबर की बस आपको मिल ही जाती है थोड़ी देर में. तो एक उपन्यास आपको क्यूँ नहीं मिलेगा? अगर आप पढ़ना चाहेंगे. सारा मामला ये है कि अगर आप पढ़ना चाहेंगे. तो 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ. 'जो खोजेगा, जहाँ चाह हैं वहाँ राह है. यहाँ तो पढ़ना ही नहीं चाह रहे हैं आप. मेरा एक दोस्त था मैं उसका नाम नहीं लूँगा गन्दा लगता है. मेरे पास एक बड़ी अच्छी किताब थी उसने कहा कि दो हम पढ़ेगे. डेढ़ दो महीने बाद मैं उसके घर गया तो बारह चौदह पेज नहीं थे उसमें. और पन्द्रहवें पेज पर वो नमक रखकर खा रहा था वो मेरे साथ पढ़ता था. तो किताबों की अगर यही स्थिति है. मेरा मानना है कि मंहगी पुस्तकों की बात हो सकती है. उस पर भी मैं इसलिए नहीं जाऊँगा कि 16-18 हजार रूपये में ग्राम भर सोना तो सभी खरीद लेते हैं. लेकिन एक किताब में 16 रूपये नहीं लगा सकते. तो ये मैं कैसे मान लूँ कि लोग नहीं खरीद रहे हैं. सोने का रोज का बाजार भाव उछला. किताबों का बाजार भाव क्यूँ नहीं उछला. क्यूँकि उससे लेखक को भी कुछ मिलता है. और आप सस्ते साहित्य की ही क्यूँ उम्मीद करते हैं. कि वो फालतू की चीज हैं तो मुफ्त में मिला करे.
गौतम: कहीं ऐसा नहीं लगता कि बचपन में बच्चों का रूझान बढ़ाया जाए?
बोधिसत्व : मैंने पहले ही इस बारे में बात की है. संस्कार अगर आप डालें. पढ़ने की भूख है कि नहीं है? अच्छा पढ़े या गन्दा भी पढ़ेगा तब भी वो पढेगा. अभी तो पढ़ने की ही आदत नहीं है आप गुलशन नन्दा और इब्ने सफी को पढ़ेगें तभी तो प्रेमचन्द तक का रास्ता खुलेगा. आप पढ़ ही नहीं रहे हैं. आप सोए पड़े हैं. बुरा भी पढ़ लिया तो वो एक समय में कहेगा कि यार इसको पढ़ लिया तो उसको भी पढ़ते हैं तो भी एक रास्ता खुलेगा. आप दोनों ही नहीं खोल रहे हो. ये दिक्कतें हैं और बड़ा बुरा माहौल है. मतलब ये समझिए कि मेरी पहली किताब का अब जाकर दूसरा संस्करण हुआ है. और 'सिर्फ कवि नहीं 'शीर्षक है. वो छपती है 1991 में और 2004 में दूसरा संस्करण आया ये बडे सौभाग्य की बात है. दूसरी किताब 2000 में आई और अब तक उसका कोई संस्करण नहीं आया. हालांकि तीसरी का फिर संस्करण हो गया है. वो 2004 में छपी और 2007 में उसका दूसरा संस्करण आ गया. मेरा कहना है कि गर मेरी किताबों के आधार पर देखा जाए तो ज्यादा से ज्यादा 5000 पाठक मिलेंगे. 5000 किताबों से मिले. 5-10 हजार पत्रिकाओं से मिले. उतने से पाठक कहाँ माना जाएगा. यहाँ पर एक सवाल ये भी है कि हिन्दी का लेखक क्या सिर्फ साहित्य लिखकर के जी सकता है. क्योंकि मेरी अब तक जो साहित्य से कमाई है वो 20-25हजार भी नहीं है. 20-25साल में 20-25 हजार. इसका मतलब है कि साल में 1000. इसमें एक बच्चा भी नहीं जिएगा. न उसके दूध और दवा का इंतजाम ही होगा. फिर मेरे लिखते रहने से क्या फायदा है? ये भी सवाल हैं कि गर हम लिखकर के जी नहीं सकते तो उससे मिल क्या रहा है? कैसे चलेगा? इसीलिए मैंने कहा कि बड़ी बुरी हालत हैं. और साहित्यकार एकदम गदगद हैं. फैले हुए हैं ढेर एवार्ड जुटा लेते हैं. दायें बायें थोड़े से हिसाब जुटा लेते हैं. वो पागलों की तरह नाच रहे हैं. बेवड़े जैसे रास्ते में एक बजे घर लौटता है कि मैं तो कवि हो गया यार. मुझे क्या है? वो देखो फलाँ ने मेरे ऊपर ये लिखा है. ऐसे नहीं चल पाएगा. कवियों को कुछ सोचना पड़ेगा. लेखकों को सोचना पड़ेगा और तभी कुछ बदलेगा जब आप अपना कंटेट बदलोगे.
रवीन्द्र गौतम: आपने मुम्बई की घटना पर एक मर्मस्पर्शी कविता रची क्या आप महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी और इन आतंकियों से किसी तरह की साम्यता पाते हैं?
बोधिसत्व : देखो, जो मैंने मुम्बई पर कविता लिखी वो मेरा पहला रिएक्शन था. क्यूँकि जिस शाम को वहाँ पर गोली बारी शुरू हुई. उससे आधे घण्टे के फासले पर मैं उस इलाके में था. मैं ‘गेट वे’ गया था. फिर मेट्रो सिनेमा तक आया. जहाँ मेरा दोस्त था. फिर हम दोनों लोग फाउन्टेन तक गए. पैदल ही हम लोगों ने आधे एक घण्टे में फासले तय किया था जब मैं चर्च गेट पहुँचा ट्रेन में बैठने वाला था. फायरिंग शुरू हो चुकी थी. मेरे दोस्त हैं भास्कर. 1997 में साथ थे. वो जानते थे. फोन किया कि टाउन में तो नहीं है. मैंने कहा नहीं हूँ. उन्होंने पूछा कहाँ पर हैं? मैंने कहा चर्च गेट पर हूँ. उन्होंने कहा ट्रेन में बैठ लीजिए. मैंने कहा क्यूँ? उन्होंने कहा वहाँ पर फायरिंग हो रही है. और पता नहीं है कि कौन लोग फायरिंग कर रहे हैं. लेकिन कुछ लोग एक कैफे में मारे गए हैं. कुछ लोग कुछ और जगहों पर. ऐसी गोली बारी हो रही है तो घर लौटने के बाद मैंने उस दोस्त को बोला कि तू भी घर लौट जा. वो भी लौट गया. मुझे लगा कि मान लो मैं वहाँ एक घण्टे और रूका होता. तो मैं भी मारा जाता. वो कविता इसलिए है कि मैं इसलिए बचा हूँ कि मैं वहाँ नहीं हूँ. अगर मैं गेटवे पर होता तो मैं भी मारा जाता. उसमें दु: खद पक्ष ये था कि उन पूरे दो दिनों में मेरे घरवालों ने ये तक नहीं पूछा कि कैसे हो? मान लो कि मैं सपरिवार घूमने गया होता. कि कैसी स्थिति है कोई पूछ भी नहीं रहा. मेरी माँ भी है. किसी ने नहीं पूछा? तुमने ही पूछ लिया होता माँ. मैं ये तो कह सकता हूँ. मैं जिन्दा हूँ कि नहीं. मैं मुम्बई में हूँ कि नहीं? हालांकि बाद में पता चला कि कुछ देर में लोगों को खबर मिली. रात में 11 बजे कॉल आने लगी बम्बई में फायरिंग हो रही है. जब वो बड़ा मुद्दा बना. एक ये सवाल हुआ. उसको मैं कह सकता हूँ कि भावुक बनाने की कोशिश में वो कविता लिखी गई. हालांकि ऐसी कविताओं को मैं महत्व नहीं देता क्योंकि बहुत भावुकता का कोई मतलब नहीं है. उससे अच्छा है कि थोड़ा सा रो लो. तो कविता में रोने का कोई महत्व नहीं होता है. दूसरा ये है कि जिन लोगों को आपने (मुहम्मद गजनवी और गोरी )ये सारे के सारे और आतंकवादी आए हैं. इनमें एक बेसिक फर्क है उसको आप ध्यान कर लीजिएगा. वे लोग योद्धा थे, कायर नहीं थे. वो लोग साहसी थे. जब वो लोग अपने देश से चले, तभी दूसरी जगह वालों को पता था कि वो चल चुके हैं. वो आए, वो डे लाइट में आते हैं. वो खेमे गाड़ते हैं. हमारे लोगों को पता रहा होगा कि उसकी फौज वहाँ पर रूकी हुई है. फिर बाकायदा बेटल फील्ड में झगडे होते हैं. आपकी आर्मी और उनकी आर्मी टकराती है. वहाँ पर फैसले होते हैं. और आप हार गए. फिर वो आते हैं और तब खजाना लूटें या कुछ भी लूटें. तो उनमें और इनमें बड़ा फर्क है. कि बाकायदा वो योद्धा थे वो लड़ाके थे. तैमूरलंग ने तो कहाँ-कहाँ चढ़ाई की. हरिद्वार और कहाँ-कहाँ तक गया वो. बाबर कहाँ से चला और कहाँ तक गया. जितने इस तरह के लोग थे. आप इनसे उनकी तुलना तो सोच ही नहीं सकते. कि वो चोरी छिपे आए हों. दो लोगों को मार दिया हो. मछुवारों को थोड़ा लालच दिया. भेष बदला हो. आई कार्ड बनाया हो. और डेड बॉडी थी. निहत्थे लोगों के आधार पर बैरी केटिंग की हो. तो ये कोई तुलना ही नहीं है. ये तो कायर लोग हैं ऐसे लोग हैं जो सामने से लड़ नहीं सकते. अगर इनमें हिम्मत हो, तो सामने हमारी भी फौज है. उनकी भी फौज है. लड़ लें. अटैक करें न. बार्डर तो खुले हुए हैं. आपको तो वहाँ चलना है और लड़ के चले जाना है. ये छुपी हुई लड़ाई है. जिसको हम कहते हैं कि सोते में गर्दन दबा देना. जान से मार देने वाला कृत्य है. पहले तो उसने पानी पिलाया फिर उसमें जहर की पुड़िया डाल दी. मैं तो तुमसे लड़ रहा नहीं हूँ. मैं तुम्हारी हत्या कर रहा हूँ. इनकी कोई तुलना ही नहीं है. क्योंकि उनके कुछ उददेश्य थे. उनका उददेश्य था ज्यादा धन लूटना, उनका उददेश्य था अपने धर्म का प्रचार करना. उनका उददेश्य था अपने धर्म को फैलाना. यहाँ तो वो भी नहीं है. उनके अटैक से मैं तो इस्लाम कबूल करने नहीं जा रहा हूँ. इनका चाहे जो भी धर्म हो. या इनके अटैक में चार इस्लाम वालों का इस्लाम में यकीन बढ़ा हो. मुझे ऐसा भी नहीं लगता. क्योंकि वहाँ हिन्दू भी मरे, मुसलमान भी मरे हैं. ईसाई यहूदी मरे. इनका उददेश्य था माहौल में गन्दगी फैलाना. वातावरण में जो एकता बनी उसको बिगाड़ना. तो इन लोगों की तुलना ही नहीं है. और वे जो भी थे. वो तैमूरंग हों या कोई और. एक योद्धा की तरह से उनका स्वागत ही करना पड़ेगा.
आप अपनी निगाह से सोचो कि वो कहाँ से चलकर चले आए मेरे भाई. पाँच सौ किलोमीटर, नदियाँ, तूफान, बाढ़, घोडे की पीठ पर बैठकर और ज्यादा तोपें नहीं, सिर्फ तलवार हैं. दो-चार दिन या महीने में फैसला हो गया कि तुम जीते, मैं हारा. वो तो प्राण हथेली पर लेकर निकले हुए लोग थे. जो ये आतंकवादी हैं विस्फोटक वगैरह जुटाके राइफलें, गोले लेकर आये भले ही और मार किसको रहे हैं? उन निहत्थे लोगों को. और जो लड़ाके लड़ने आए तो आप उनसे भिड़ नहीं पाए. दो मिनट के बाद आप चें बोल गए. आपमें माद्दा होता तो मैरियन लाइन पर ही बोलते कि आओ हम तुमसे फाइट करेंगे. ये 20-20 का मैच भी नहीं था. युद्ध के क्षेत्र में रण में पवेलियन में पब्लिक आती है. अब हमारे घर में घुसकर हमको मार रहे हो. हास्पिटल में घुसकर बीमार लोगों पर फायरिंग कर रहे हो. ये कोई लड़ाई है? इस पर तो थूका भी नहीं जा सकता. इससे गन्दा काम क्या हो सकता है? आप टावर में घुसकर कहते हो कि हम अपने धर्म का प्रचार कर हैं. तो तुम धर्म का प्रचार नहीं कर रहे हो. तुम अपने धर्म के खिलाफ लोगों को खड़ा कर रहे हो. जो भी तुम्हारा धर्म है. लोग उस थूकें और बोलें कि कैसे गन्दे लोग हैं. ये क्या कर रहे हैं. और ऐसे लोगों की मैं खुले दिल से निन्दा करता हूँ. बिना किसी धार्मिक भेदभाव से भरे. ये जो भी कर रहे हों जो भी ये लोग हों. इनकी कलाई तोड़नी चाहिए. इनकी गर्दन दबानी चाहिए. इनको नंगा करके जेल में बन्द कर पिटाई करना चाहिए. और जो ऊँची से ऊँची सजा हो वो देनी चाहिए. तो कोई तुलना नहीं. सिकन्दर से हम भले हारे हों. लेकिन हम सिकन्दर से सीख ले सकते हैं कि उसकी जैसी भी जिन्दगी हो सकती है. और हम हार क्यूँ गए थे? किनसे भी? इन कारणों की भी जांच की जानी चाहिए. कि वो आए और हमको हरा गए. यहाँ भी ये आए और हमको मार गए. हमारी सुरक्षा व्यवस्था में इतनी सेंध क्यूँ है? वो आकर होटल में रूक लेते हैं. पड़े रहते हैं. हमको पता नहीं. वो अचानक जब शक्ल बदलते हैं तब हमको पता चलता है कि ये वो भेड़िया था. एक बड़ी अच्छी सी प्यारी कहानी कभी पढ़ी थी. कि एक भेड़िया जो है वो भेष बदलने के मन्त्र जान गया था. और गलती से उसने एक लड़की से शादी कर ली दूल्हा बनकर, तेंदुआ था. और जब लड़की थोड़ा दायें-बाएं करें, तो कहता था कि असली रूप दिखाऊँ? अपने असली रूप में आऊँ. और वो डरी रहती थी. ये तो तेन्दुआ है इसका असली रूप कैसे झेलेंगे. तो असली रूप में आने का डर है? तेंदुए हैं न वो लोग और असली रूप में आओगे तो मारे जाओगे. चाहे मैं हूँ, पत्नी नहीं मारे, वो लड़की नहीं मारे तो वो कोई न कोई उपाय तो करेंगे ही. क्योंकि बुराई तो जानी ही है. आज नहीं तो कल जाएगी.
रवीन्द्र गौतम: भगत सिंह, चे, और पाश की विरासत से युवा पीढ़ी अनुप्रेरित हो रही है. लेकिन समाजवादी लक्ष्य अभी भी दुलर्भ प्रतीत हो रहा है. आपका समाजवादी लक्ष्य की सम्भाव्यता के बारे में क्या विचार है?
बोधिसत्व : एक तो ये कि भगत सिंह,चे ग्वेरा और पाश से युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है मैं तो नहीं मानता. अगर हम युवा पीढ़ी को ही आदर्श बनायें तो युवा पीढ़ी को पता भी नहीं होगा कि ये कौन हैं? उन्होंने अपने देश के लिए क्या किया है? लोगों को नहीं पता है. वही है कि साहित्य कहीं पहुँच नहीं रहा है. कुछ पढ़े लिखे लोगों को लगता है कि युवा पीढ़ी चे से प्रभावित हैं. मुझे नहीं लगता है. भगत सिंह से प्रभावित है तो चलो एक दो फिल्में बनी. चार-छ: लोगों पर कुछ इम्पैक्ट पड़ा हो. प्रभावित होना तो एक अलग सी बात है कि उनके जीवन से कुछ शिक्षा लें. उनके विचारों से हम अपना रास्ता बनाएँ. मुझे एकदम नहीं लगता कि कहीं से कोई प्रभाव वाली बात है. और प्रभावित किनसे हैं मैं उनके नाम क्यूँ लू? आप सभी जानते हैं कि प्रभावित किससे हैं? किसकी बात से नाच रहे हैं?
अभी 31 दिसम्बर आने वाला है देखिए उसमें भगत सिंह की कितनी प्रार्थनायें चल रही हैं. हालांकि नया साल तो सभी को मनाने का हक है. वो एक अलग एजेण्डा भी है. लेकिन मुझे नहीं लग रहा. किसका प्रभाव है. ये दु: ख की बात भी है. मैं इसको बड़े हार्दिक दुख के साथ कहना चाहूँगा. कि चे छोड़ दीजिए. भगत सिंह को छोड़ दीजिए. आज के ये जो कारगिल वाले शहीद हैं इनका कहीं कोई नाम क्यों नहीं है? ये जो बम्बई में मार दिए गए लोग हैं. ड्यूटी पर आज भी लोग प्राण दे रहे हैं. गलती से ही सही. मजबूरी में ही सही लेकिन शहादत से हम क्यों प्रभावित नहीं है. क्यूँ उनमें कोई सीख नहीं ले रहे हैं? कारगिल के शहीदों पर आप बोलो कितने बच्चों को पता है कितने लोग वहाँ मरे? हम बाहर के देशों में जाने की बजाए यहाँ हिन्दुस्तान में देखें .
हम ये नहीं कह रहे कि चे से प्रभावित होने का विरोध कर रहे हैं. लेकिन हमारे आज जो हीरो चुनने की परम्परा है न. वो भी बदल गई है. राम मनोहर लोहिया हीरो नहीं है. हमारा हीरो कोई राम नाम का सेठ होता तो चलता था. किसी चैनल का मालिक होता तो कहते- देखो क्या बात है. देखो उसने कैसे क्या- क्या किया? आज हीरो चुनने का भी वो ट्रेंड नहीं है बन्धु. सलेबस में जितना लोग पढ़ते हैं. थोड़ा सा लड़कियाँ किससे प्रभावित हो रही हैं. चे अगर मेरी पसन्द हैं तो शायद कोई लड़की मेरी तरफ ध्यान दे जाए. थोड़ा अलग दिखने का ट्रेंड है.
मेरा ख्याल है पिछले दिनों भगत सिंह पर एक लेख आया था अभी जन्म दिवस या शहादत दिवस हो ब्लॉग पर चार छ: पन्ने आए. फिर साल भर का सन्नाटा रहेगा. फिर उसके बाद उनकी तिथि आएगी फिर दो-तीन लेख आ जाएंगे. फिर उन्हीं के लेख छप जाएंगे. कि 'मैं नास्तिक क्यों हूँ ?'और कुछ किताबें चमनलाल ने भगत सिंह पर लिखी कई प्रकाशनों ने जो छापी हैं वो पुन: छप जाएंगी. सुखदेव और बटुक के नाम कुछ पत्र छप जाएंगे. बस फिर ग्यारह महीने की छुटटी, मेरी भी और उनकी भी और सब की भी. प्रभावित आदमी और पीढियाँ तब होगी जब हम एक एजेण्डा रखें कि भगत सिंह से प्रभावित हैं. पिछली पीढ़ी नई पीढ़ी के पास फिर उन लोगों उनका दर्शन पहुँचे, लोग जानेगे तब. फिल्में ऐसी-ऐसी बनीं भगत सिंह पर कि नाम नहीं लिया जा सकता.
एक फिल्म थी भगत सिंह पर उसमें बॉबी देओल संवाद बोलता है अपनी माँ से, कि मैं जब अगला जन्म लूँगा तो मेरे गले में फांसी के फन्दे का निशान होगा. वो भगत सिंह जो नास्तिक हैं, वो पुर्नजन्म की बात कर रहा है. और उस पर भी वो निशान छूटा रहे. नागिन जैसी फिल्में है, ढूँढते हुए कि माँ मेरी पहचान लेगी. या ये कि उसी घर में पैदा होंगे. और तब तक आबादी पहुँची होगी एक सौ तीस करोड़. और माँ उसमें गर्दन-गर्दन ढूँढती फिरेगी. तो ऐसी ढेरों फिल्में बनी. उसमें आइडियोग नहीं है.
मुझे लगता है कि इसका भी एक एजेण्डा बनाना चाहिए, कि हमारी पीढ़ी किसकी तरफ जाए. गान्धी की तरफ जाए. वो रास्ता बुरा नहीं है. गान्धी, भगत सिंह मिलकर एक रास्ता बने. कि जरूरत पड़े तो हम हिन्सक होंगे. और जरूरत पड़े तो हम अहिंसा का जीवन अपनाएंगे. गान्धी भगत सिंह और अम्बेडकर का मिला जुला एक रास्ता हो. या गान्धी, भगत, चन्द्रशेखर, अम्बेडकर, नेता जी सुभाषचन्द्र इन सबका एक मिला जुला रास्ता हो. क्योंकि रास्ता एक तो नहीं हो सकता. अभी तय हो गया है कि बहुत सारे पथ हैं. समाज एक रास्ते पर जाकर कहीं नहीं पहुँचेगा. सिर्फ गान्धी की अहिंसा से आजादी भी नहीं मिली थी. न सिर्फ भगत सिंह वाले से रास्ता मिलना है. क्योंकि बम का दर्शन आप चलाएंगे तो उसके बहुत सरे इस्तेमाल हैं. आप बम चलाएंगे, सत्ता उससे बड़ा बम चलाएगी. तो ये रास्ता भी नहीं है.
मुझे लगता है कि वक्ती तौर पर छोटे-छोटे एजेण्डे बनाने होंगे. कि ये तीन साल हम गान्धीवाद के सहारे चलेंगे और मौका मिलेगा तो हम भगत सिंह का हथियार अपना लेंगे. और रास्ता बिगड़ेगा तो हम आजाद हिन्दी फ़ौज बना लेंगे सुभाष चन्द्र की तरह. और स्थितियाँ बिगड़ी तो अम्बेडकर वाला रास्ता है. और बिगड़ेगी तो और. हमारे सारे पुरखे उनको रास्ता देकर गए हैं. और सबने कहा कि मेरे रास्ते पर चलो. ये वो न भी कहते तो भी हमें समझना होगा किसी ने कहा नहीं कि मेरे रास्ते पर चलो. किसी ने कहा नहीं कि मेरे रास्ते पर मत चलो. हमको जो अच्छा लगेगा हम उन पर जाएंगे. लेकिन आज भी आवश्यकता है राम के रास्ते पर चलने की. आवश्यकता है, बुद्ध के रास्ते पर भी चलने की. आवश्यकता हैं ईसा के रास्ते पर भी चलने की. आवश्यकता है. और मोहम्मद साहब के रास्ते पर भी चलने की आवश्यकता है. आप तलवार और कुरान दोनों एक साथ में लेकर चल सकते हैं. लेकिन मार किसको रहे हैं ये तो जानना जरूरी है. किसी को भी तो नहीं मारोगे. कि जो मिला उसी को नहीं मालूम कि कौन मरा है. ये एजेण्डा तय करना पड़ेगा. अगली पीढ़ी खुद तय करे या हम उससे कहें.
रवीन्द्र गौतम: आप अपनी उपलब्धियों के बारे में बताएँ? काफी पुरस्कार मिले आपको और क्या अनुभव रहे ?
बोधिसत्व : उसकी बात आप न करो तो बेहतर है क्योंकि एवार्ड का ऐसा मोह नहीं रहा कभी. मैंने कई दफे पैसे लौटा दिए एवार्ड नहीं. मैं ये कह रहा हूँ कि अगर मुझे बीस एवार्ड भी मिले हों तो उससे क्या? मुझे कोई पढ़ ही नहीं रहा. किसी को कुछ भी मिल जाए. मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि मुझे कोई पढ़ ही नहीं रहा हैं. मेरी स्थिति तो फिर भी अच्छी है. बहुत सारे लोगों को तो..... मैं माफी चाहूँगा कि एवार्ड से तय नहीं होगा. सब कुछ आपके कंटेट से तय होगा. एवार्ड का साहित्य से कोई लेना देना नहीं है. मेरे लिखे से मेरे एवार्ड का कोई असर नहीं पड़ता है. मैं आज जो लिख रहा हूँ कल वो छपेगा, परसों लोग उसे पढेंगे. एवार्ड जो है वो आप कह सकते हैं कि आपके नाम को अन्डर लाइन किया गया है. लेकिन उससे बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है. जब मुझे एक सम्मान मिलता है एक कविता 'पागलदास 'पर. अगर मेरी बाकी कवितायें बुरी हों तो फर्क क्या पड़ता है? संस्कृति एवार्ड मेरी दो किताबों पर मिला. लेकिन अगर मैं अच्छा नहीं लिख रहा हूँ वो क्या? वो बीती हुई बात है आप कह सकते हैं- वो गहना है जो मैंने अपने कोढ़ी शरीर पर लगा रखा है. मैं अपने घाव एक अच्छी सी ज्वैलरी से ढक रहा हूँ. एवार्ड जो है- कपड़ा है बहुत साफ-सुथरा, अच्छा सा डिजाइनर कपड़ा है कि ये देखो, इसने ये कपड़ा पहन रखा है. एवार्ड के बिना आदमी नंगा दिख सकता है. अगर अच्छा नहीं लिखता हो तो एवार्ड जो है आपकी कमियों को ढकता है. कि आपके बारे में लोगों की धारणा बने.जो हेमन्त स्मृति एवार्ड पहला मिला था. उसके बारे में थोड़ा गम्भीरता से सोचो. मुझे लगता है एवार्ड मिलना शहादत दिवस जैसा तीन चार दिन का प्रचार माध्यम होता है कि भगत सिंह की शहादत दिवस पर बोधिसत्व को ये एवार्ड मिला. एक ही तरह की ये दोनों हेडलाइन्स बनती हैं. या कहें कि एक ही लाइन बनी कि बोधिसत्व को एक एवार्ड और मिला. बीच में एक दो एवार्ड मैंने लेने से इंकार किए. लेकिन स्थिति बहुत स्वागत योग्य नहीं है. अगर मैं मानता हूँ कि मैं अच्छे से लिख रहा हूँ तो कितने साल हो गए? 20-22 साल तो हो गए न. इस बाइस साल में आपने क्या लिखा? तीन सौ कवितायें लिखी और आप खुश हो, आप गदगद हो. आप अपने ही हाथ से अपनी पीठ ठोके जा रहे हो. अपने को खुद ही प्यार किए पड़े हो. कुछ नहीं लिखा.
रवीन्द्र गौतम: ये एवार्ड तो लेकिन दूसरों ने ही दिए आपको?
बोधिसत्व : हाँ मैं ये कह सकता हूँ कि मैंने मांगे नहीं लोगों ने दे दिए.
रवीन्द्र गौतम: आपसे प्रभावित होकर ही दिए होंगे?
बोधिसत्व : उसमें बहुत सारा सन्तुलन बनाना भी होता है. कि फलाँ कृति को पिछली बार दिया था तो इस बार फलाँ को दो. मैं इसकी निरपेक्षता पर नहीं जा रहा हूँ. मैंने माना लोगों ने खुद से दिया है लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. अच्छा लिखा ही आपको जीवित रखेगा. ये एवार्ड आपको जीवित रहने के लिए मिला मुझे नहीं पता है.
प्रेमचन्द जो साहित्य के जरिये अब भी जिंदा है उनकी साहित्यिक कृतियों को मिटा दो आप. नहीं मिटा सकते. लेकिन एवार्ड मिटाया भी जा सकता है. आपको कितना उनका जीवन पता है? भारतेन्दु को क्या मिला था? तब तो एवार्ड राजा-महाराजा देते थे. अंग्रेज सरकार देती थी. खिताब होते थे. और उसका प्रचलन तो इस बीच में हुआ है. कुल मिलाकर आप अच्छा लिखेंगे तभी आप जीवित रहेंगे. वही आपका पुरस्कार है. नहीं तो जितने एवार्ड मिलें हो आपको. सजा लो घर में, तसल्ली दे लो. उसके बारे में सोचते रहो. कि फलाँ एवार्ड अभी नहीं मिला है. लेकिन जिन्दा आप तभी रहेंगे जब आप अच्छा लिखेंगे.
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नाम: बोधिसत्व
उम्र: 55 वर्ष
जन्म स्थान: भदोही जिले के एक गाँव भिखारी रामपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: सारी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
संप्रति: फिलहाल मुंबई में रहते हैं और सिनेमा और सीरियल के लिए लिखते हैं
कवितायें: अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित है जिना पर कुछ सम्मान और पुरस्कार भी मिले हैं. दो कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं.
कहानियाँ: कुछ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें से एक प्रकाशित है.